बीस घरों के राग रंग में अस्सी चूल्हे बन्द हुए क्यों?
लोकतंत्र के प्रायः प्रहरी इतने आज दबंग हुए क्यों?
दुबक गए घर बुद्धिजीवी खुद को मान सुरक्षित।
चहुँ ओर है धुआँ धुआँ ही यह क्यों नहीं परिलक्षित?
दग्ध हुई मानवता जिसको मिलकर नहीं सहलायेंगे।
तो इस आग में हम भी जल जायेंगे।।
जन के ही सर पग धर कोई लोकतंत्र के मंदिर जाता।
पद पैसा प्रभुता की खातिर अपना सुर और राग सुनाता।
उनकी चिन्ता किसे सताती जो जन राष्ट्र की धमनी है।
यही व्यवस्था की निष्ठुरता उग्रवाद की जननी है।
राष्ट्रवाद उपहास बनेगा गर कुछ न कर पायेंगे।
तो इस आग में हम भी जल जायेंगे।।
बना हिन्द बाजार जहाँ नित गिद्ध विदेशी मँड़राते हैं
यहीं के श्रम और साधन से परचम अपना फहराते हैं।
विश्व-ग्राम नहीं छद्म-गुलामी का लेकर आया पैगाम।
आजादी के नव-विहान हित अलख जगायें हम अविराम।
सजग रहे माली उपवन का तभी सुमन खिल पायेंगे।
या इस आग में हम भी जल जायेंगे।।
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24 comments:
बीस घरों के राग रंग में अस्सी चूल्हे बन्द हुए क्यों?
लोकतंत्र के प्रायः प्रहरी इतने आज दबंग हुए क्यों?
सार्थक प्रश्न लिये हुए आपकी यह रचना
कितना सटीक चित्रण किया है आपने
जन के ही सर पग धर कोई लोकतंत्र के मंदिर जाता।
बहुत खूब
बना हिन्द बाजार जहाँ नित गिद्ध विदेशी मँड़राते हैं
यहीं के श्रम और साधन से परचम अपना फहराते हैं।
विश्व-ग्राम नहीं छद्म-गुलामी का लेकर आया पैगाम।
आजादी के नव-विहान हित अलख जगायें हम अविराम।
-जबरदस्त!! बहुत खूब!!
बहुत ही सार्थक रचना. सुन्दर.
जन के ही सर पग धर कोई लोकतंत्र के मंदिर जाता।
पद पैसा प्रभुता की खातिर अपना सुर और राग सुनाता।
उनकी चिन्ता किसे सताती जो जन राष्ट्र की धमनी है।
यही व्यवस्था की निष्ठुरता उग्रवाद की जननी है।
राष्ट्रवाद उपहास बनेगा गर कुछ न कर पायेंगे।
तो इस आग में हम भी जल जायेंगे।।
सार्थक रचना बहुत खूब
सटीक चित्रण के लिए बधाई।
बहुत ही बढिया बहुत सटीक चित्रण किया है आपने सुमन जी बहुत बहुत बधाई
Wah sir ji Wah
जन के ही सर पग धर कोई लोकतंत्र के मंदिर जाता।
पद पैसा प्रभुता की खातिर अपना सुर और राग सुनाता।
क्या कटाक्ष है भाई जी वाहवा
प्रणाम श्यामल जी एक तीखा प्रश्न पूछती हुई रचना मन वेदना कुल हो उठता है
मेरा प्रणाम स्वीकार करे
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
बीस घरों के राग रंग में अस्सी चूल्हे बन्द हुए क्यों?
लोकतंत्र के प्रायः प्रहरी इतने आज दबंग हुए क्यों?
दुबक गए घर बुद्धिजीवी खुद को मान सुरक्षित।
चहुँ ओर है धुआँ धुआँ ही यह क्यों नहीं परिलक्षित?
दग्ध हुई मानवता जिसको मिलकर नहीं सहलायेंगे।
तो इस आग में हम भी जल जायेंगे।।
शानदार ...
बना हिन्द बाजार जहाँ नित गिद्ध विदेशी मँड़राते हैं
यहीं के श्रम और साधन से परचम अपना फहराते हैं।
विश्व-ग्राम नहीं छद्म-गुलामी का लेकर आया पैगाम।
आजादी के नव-विहान हित अलख जगायें हम अविराम
bahut hi badhiya likha hai aapne bahiya..
bahut hi sundar...
pranaam..
श्यामल जी,
देश के वर्तमान का हालात-ए-बयाँ किसी सर्जन की भांति ही किया है आपने। जो बीमारी के लक्षणों के निदान में ही नही बल्कि जड़ तक जाने की समझ रखता है।
सुन्दर रचना।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
geet me bahut aag hai
main is aag ko pranaam karta hoon !
आपकी तड़प ,क़सक ,आदरणीय हैं . राष्ट्रवाद उपहास बनेगा गर कुछ ना कर पायेगे , हर हिन्दुस्तानी के लिए ज़रूरी बात ,
बना हिन्द बाजार जहाँ नित गिद्ध विदेशी मँड़राते हैं
यहीं के श्रम और साधन से परचम अपना फहराते हैं।
विश्व-ग्राम नहीं छद्म-गुलामी का लेकर आया पैगाम।
आजादी के नव-विहान हित अलख जगायें हम अविराम।
सजग रहे माली उपवन का तभी सुमन खिल पायेंगे।
या इस आग में हम भी जल जायेंगे।
yah हमारी सच्चाई हैं सुमन जी ,सच्चा प्रश्न हैं आपका
बीस घरों के राग रंग में अस्सी चूल्हे बन्द हुए क्यों?
लोकतंत्र के प्रायः प्रहरी इतने आज दबंग हुए क्यों?
बीस घरों के राग रंग में अस्सी चूल्हे बन्द हुए क्यों?
लोकतंत्र के प्रायः प्रहरी इतने आज दबंग हुए क्यों?
saartak aur samayik prashn...
..apki kavita kahin na kahin inke uttar dhoonde main bhi safal rehti hai...
.......यही व्यवस्था की निष्ठुरता उग्रवाद की जननी है।
राष्ट्रवाद उपहास बनेगा गर कुछ न कर पायेंगे।
तो इस आग में हम भी जल जायेंगे।।
बहुत खूब! शुक्रिया. जारी रहें.
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१५ अगस्त के महा पर्व पर लिखिए एक चिट्ठी देश के नाम [उल्टा तीर]
please visit: ultateer.blogspot.com
विश्व-ग्राम नहीं छद्म-गुलामी का लेकर आया पैगाम
आजादी के नव-विहान हित अलख जगायें हम अविराम
अध्बुध शब्द संयोजन है सुनाम जी............ लाजवाब लिखा है
बीस घरों के राग रंग में अस्सी चूल्हे बन्द हुए क्यों?
लोकतंत्र के प्रायः प्रहरी इतने आज दबंग हुए क्यों?
क्या सही और गहरी बात कही है सार्थक सटीक सँदेश देती कविता के लिये बधाई
Zindagee se jodti hai ye rachnaa.
{ Treasurer-T & S }
धन्यवाद है देर से था बिलकुल मजबूर।
ब्राडबेंड परताप ने किया नेट से दूर।।
आप सबके स्नेह, समर्थन के प्रति विनम्र आभार।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! इस बेहतरीन और शानदार रचना के लिए बधाई!
भाई सुमन जी आपकी ये ओजस्वी कविता दिनकर जी की याद दिला गई |
पर ये सब जानकार भी क्या हम जलते रहेंगे?
बहुत अच्छा लिखा है |
पर ये सब जानकार भी क्या हम जलते रहेंगे?
या टिपण्णी कर बस चलते बनेंगे ?
वाह वाह कर चल दिए, क्या यही सार्थकता है ?
यदि नहीं तो आगे का निर्माण हम क्यों नहीं करें?
क्यों नहीं सुवात हम अपने से करें?
चलिए प्राण करते हैं, जहाँ तक संभव होगा हम सच्चे मन से स्वदेशी की सेवा करेंगे |
आपकी यह vyatha बिलकुल इसी रूप में मुझे भी dagdh करती है परन्तु उसे जिस तरह आपने abhivyakti दी है,वह saamarthy mujhme नहीं है....इसलिए आपकी lekhni को नमन है....
"दुबक गए घर बुद्धिजीवी खुद को मान सुरक्षित।"
कहीं आप इस pankti में "सुरक्षित" के स्थान पर "असुरक्षित" तो नहीं लिखना चाहते थे.....देख lijiyega....
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