Wednesday, August 4, 2010

हकीकत

जो रचनाएँ थी प्रायोजित उसे मैं लिख नहीं पाया
स्वतः अन्तर से जो फूटा उसे बस प्रेम से गाया
थी शब्दों की कभी किल्लत न भावों से वहाँ संगम,
दिशाओं और फिजाओं से कई शब्दों को चुन लाया

किया कोशिश कि सीखूँ मैं कला खुद को समझने की
कठिन है यक्ष-प्रश्नों सा है बारी अब उलझने की
घटा अज्ञान की मानस पटल पर छा गयी है यूँ,
बँधी आशा भुवन पर ज्ञान की बारिश बरसने की

बहुत मशहूर होने पर हुआ मगरूर मैं यारो
नहीं पूरे हुए सपने हुआ मजबूर मैं यारो
वो अपने बन गए जिनसे कभी रिश्ता नहीं लेकिन,
यही चक्कर था अपनों से हुआ हूँ दूर मैं यारो

अकेले रह नहीं सकते पड़ोसी की जरूरत है
अगर अच्छे मिलें तो मान लें गौहर की मूरत है
पड़ोसी के किसी भी हादसे को जानते हैं लोग,
सुबह अखबार में पढ़ते बनी अब ऐसी सूरत है

बिजलियाँ गिर रहीं घर पे न बिजली घर तलक आयी
बनाते घर हजारों जो उसी ने छत नहीं पायी
है कैसा दौर मँहगीं मुर्गियाँ हैं आदमी से अब,
करे मेहनत उसी ने पेट भर रोटी नहीं खायी

हकीकत से दुखी प्रायः यही जीवन-कहानी है
नहीं मुस्कान चेहरों पे उसी की ये निशानी है
चमन में है कभी पतझड़ कभी ऋतुराज आयेगा,
सुमन की दोस्ती काँटों से तो सदियों पुरानी है

19 comments:

रश्मि प्रभा... said...

जो रचनाएँ थी प्रायोजित उसे मैं लिख नहीं पाया
स्वतः अन्तर से जो फूटा उसे बस प्रेम से गाया
थी शब्दों की कभी किल्लत न भावों से वहाँ संगम,
दिशाओं और फिजाओं से कई शब्दों को चुन लाया
bahut hi badhiyaa

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आप एक श्रेष्ठ कवि हैं!
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

है कैसा दौर मँहगीं मुर्गियाँ हैं आदमी से अब,
करे मेहनत उसी ने पेट भर रोटी नहीं खायी

कठोर सत्य को उजागर किया है।
अब तो मंहगाई को ही खाना पड़ रहा है।
देश को दोनो हाथों से लूट रहा है भ्रष्टाचार का दानव।
मुर्गियों से भी सस्ता हो गया है आज का मानव

बहुत सुंदर भावाअभिव्यक्ति सुमन जी

आभार

Shiv said...

बिजलियाँ गिर रहीं घर पे न बिजली घर तलक आयी
बनाते घर हजारों जो उसी ने छत नहीं पायी
है कैसा दौर मँहगीं मुर्गियाँ हैं आदमी से अब,
करे मेहनत उसी ने पेट भर रोटी नहीं खायी

अद्भुत!!!
अत्यंत ही प्रभावशाली और दिल में बस जाने वाली रचना.

गुड्डोदादी said...

श्यामल जी (गुदरी का लाल )
चिरंजीव भवः
जो रचनाएँ थी प्रायोजित उसे मै लिख नहीं पाया
स्वत:अन्तर से जो फूटा उसे बस प्रेम से गाया
यही शब्द निकले
मेरा प्यार मुझे लौटा दो
मै जीवन में उलझ गया हूँ
तुम जीना सिखला दो
फिर आपने लिखा
वो अपने बन गए जिनसे कभी रिश्ता नहीं लेकिन ,
यही चक्कर था अपनों से दूर हुआ मै यारों
बहुत भावुक कवि है आप

राज भाटिय़ा said...

बिजलियाँ गिर रहीं घर पे न बिजली घर तलक आयी
बनाते घर हजारों जो उसी ने छत नहीं पायी
है कैसा दौर मँहगीं मुर्गियाँ हैं आदमी से अब,
करे मेहनत उसी ने पेट भर रोटी नहीं खायी
बहुत खुब सुरत जी, हम किन शव्दो मै तारीफ़ करे, आप की रचनाओ के सामने हमारे तारीफ़ के शव्द भी छोटे पडते है, धन्यवाद

रंजना said...

विसंगतियों को सार्थक और मुखर शब्द दिए हैं आपने...
मन को छूती अतिसुन्दर कविता...

शिवम् मिश्रा said...

बेहद उम्दा रचना , बधाइयाँ और शुभकामनाएं !

अजय कुमार झा said...

बहुत खूब श्यामल जी ....सच ही है कि आपको आंकने की कूव्वत अभी हममें नहीं हैं , इसलिए आपको पढ कर स्वाद लेने में ही अद्भुत जो आनंद आता है वही उठाते हैं । शुभकामनाएं ...बहुत बहुत ..

डॉ टी एस दराल said...

वो अपने बन गए जिनसे कभी रिश्ता नहीं लेकिन,
यही चक्कर था अपनों से हुआ हूँ दूर मैं यारो

जिंदगी में रिश्ते नाते यूँ ही बदलते रहते हैं ।
सही कहा , पड़ोसी अच्छा हो तो अपनों की कमी नहीं खलती ।
बढ़िया रचना ।

प्रवीण पाण्डेय said...

काटों से दोस्ती में फूलों की जलन,
सह लिया जाये, जब यही है चलन।

गुड्डोदादी said...

सामल
सीसा देउऊँ
आसिर्वाद

ईब चार बार यो कविता बाच ली
घटा अज्ञान की मानस पटल पर छा गई है यूं,
बँधी आशा भुवन पर ज्ञान की बारिश बरसने की
आपकी कविता पढ़ कर बादल तो बरसे नहीं
आँखों के आसूयों की बाढ़ आ गई डूब ना जायूं साहिल की खोज में हूँ
शुभ कामनाऐ

चन्द्र कुमार सोनी said...

अच्छी हकीकत बयान की हैं आपने.
बहुत अच्छा.
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

पूनम श्रीवास्तव said...

purnatah hakikat liye behad prabhavshali avam sarthak rachna.
poonam

Anonymous said...

Amiable post and this enter helped me alot in my college assignement. Thank you on your information.

निर्झर'नीर said...

बहुत मशहूर होने पर हुआ मगरूर मैं यारो
नहीं पूरे हुए सपने हुआ मजबूर मैं यारो
वो अपने बन गए जिनसे कभी रिश्ता नहीं लेकिन,
यही चक्कर था अपनों से हुआ हूँ दूर मैं यारो



सुमन जी ...जब भी आपको पढता हूँ बस यही गीत याद आता है

हुस्न-ए-जाना की तारीफ़ मुमकिन नही

आपके गीतों की तारीफ़ भी मुमकिन नही

Padmaja Shastri said...

बहुत खूब! आप बहुत अच्चा लिखते हो

Padmaja Shastri said...

बहुत खूब! आप बहुत अच्छा लिखते हो
.

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