घर के ऊपर घर को देखा
और भागते शहर को देखा
किसे होश है एक दूजे की
मजलूमों पे कहर को देखा
तोता भी है मैना भी है
मगर प्यार में कसर को देखा
हाथ मिलाते लोगों के भी
मुस्कानों में जहर को देखा
चकाचौंध है अंधियारे में
थकी थकी सी सहर को देखा
लक्ष्मी के सेवक के दिल में
कोमलता पे असर को देखा
पानी को अब खेत तरसते
शहर बीच में नहर को देखा
बढ़ता जंगल कंकरीट का
जहाँ सिसकते शजर को देखा
कहाँ काफिया क्या रदीफ है
सुमन कभी न बहर को देखा
Friday, June 10, 2011
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6 comments:
"हाथ मिलाते लोगों के भी
मुस्कानों में जहर को देखा"
बिल्कुल सही कहा है .........आपने.
har ek chhota sher moti baat kehta hua ..bahut khoob sir ..
वाह क्या बात है ... आधुनिक समाज पे कटाक्ष करती हुई बढ़िया रचना !
aaj ke samajik paripeksh mein sateek rachna...!!
बिल्कुल सही कहा है| धन्यवाद|
इसी द्वन्द्व से भरा शहर है,
इधर कहर है उधर कहर है।
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