Tuesday, January 7, 2014

बोझ देह का ज्यों ढोता हूँ


तुमने मुझको मान दिया है
जीने का अभियान दिया है
खुशी मिली किस्मत से यारा
नूतन जीवन-दान दिया है

बसा लिया जब तुझको मन में
सब कुछ बदल गया जीवन में
बेचैनी क्यों दिल में जबकि
खुशियाँ पसरीं हैं आँगन में

मैंने कितना प्यार किया है
प्यार सहित व्यवहार किया है
दुनिया वाले कहते अक्सर  
प्यार नहीं व्यापार किया है

नहीं चैन से अब सोता हूँ
बोझ देह का ज्यों ढोता हूँ
हँस लेता हूँ लोक-लाजवश
अन्दर ही अन्दर रोता हूँ

हँसी तुम्हारी खनक लिये है
चेहरे पर भी चमक लिये है
सुमन सिसकता यहाँ बैठकर
उसकी सारी महक लिये है

4 comments:

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

वाह जी वाह

विभूति" said...

भावो का सुन्दर समायोजन......

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी प्रस्तुति गुरुवार को चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है |
आभार

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रेम में मुक्ति चाहें या पाश।

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