Friday, November 28, 2014

सोच समझ पर ताला है

एक बार में कहना मुश्किल कौन यहाँ दिलवाला है
देख चमक दर्पण के आगे पर पीछे से काला है

काम बुरा, अच्छा ना सोचा भरा खजाना दौलत का
खुद के बाहर देख सका ना सोच समझ पर ताला है

कुदरत भी अब हुई प्रभावित देख सियासत की गरमी
पेड़ बहुत कम शीतल छाया ना कोई पनशाला है

गिनती धनवानों की सिमटी और गरीबी पसर रही
कुछ घर में दिवाली होती बाकी सब दिवाला है

आनेवाली पीढ़ी को हम क्या सौगात यही देंगे
अवसर सुमन जहाँ मिल जाए लूट रहा मतवाला है

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (30-11-2014) को "भोर चहकी..." (चर्चा-1813) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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