भले रजाई में लिपटे हम घर से बाहर जाना छोड़
स्वाभाविक दाँतों के सरगम गाना और बजाना छोड़
कल तक सबको जला रहे थे इस ठंढे में कहाँ हो गुम
दिनभर साथ सुमन के रहना ऐ सूरज मत आना छोड़
कल तक सबको जला रहे थे इस ठंढे में कहाँ हो गुम
दिनभर साथ सुमन के रहना ऐ सूरज मत आना छोड़
जाड़े का मौसम प्रिय उनको जो इण्डिया में रहते हैं
भारत में रहने वाले तो बस ठिठुरन ही सहते हैं
ये अन्तर कैसे मिट पाये, सच्ची कोशिश नहीं हुई
पर दशकों से संसद में सब बात यही तो कहते हैं
अबतक उलझा उदर-भरण में क्या जीवन भगवान मिला
जीना मरना जिनकी खातिर उनसे ही अपमान मिला
बोध - कथा बिच्छू - साधु की, पर जीना साधु बनकर
जो "अपने" वे हँसकर कहते देख सुमन नादान मिला
अपनी मिहनत से परिजन को सारी खुशियाँ हम देते हैं
परिजन को भी ये शक है कि खुशियाँ कितनी कम देते हैं
बरसातों में प्यासी धरती जाड़े में बरसात अधिक
सुमन की दुनिया घर जैसे ही खुदा भी क्या मौसम देते हैं
ना कोई घर अपना लेकिन सारी दुनिया घर मेरे हैं
प्रेम अगर विस्तारित हो तो सारे गाँव नगर मेरे हैं
पेट पीठ हैं सटे सुमन के तन पर वस्त्र नहीं दिखते
हो निजात बस इस हालत से हर विरोध के स्वर मेरे हैं
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