Saturday, February 22, 2025

कहते जग को वैरागी हम

ये मत कहना हैं बागी हम
सभी धर्म के अनुरागी हम

धार्मिक  हैं  या  ढोंग रचाते 
अपने  कर्मों  के  भागी हम

किसी  धर्म  की  करें बुराई 
तो  समाज  के हैं दागी हम

कई  उचक्के  संत - वेष में
कहते  जग  को वैरागी हम

नीति गलत जो धर्म नाम पे
चुप  रहते तो सहभागी हम 

बचा सकें मानव-मूल्यों को 
तो  समझेंगे  बड़भागी हम

सदा  प्रेम से बढ़ती दुनिया 
राग - सुमन के हैं रागी हम

No comments:

हाल की कुछ रचनाओं को नीचे बॉक्स के लिंक को क्लिक कर पढ़ सकते हैं -
रचना में विस्तार
साहित्यिक  बाजार  में, अलग  अलग  हैं संत। जिनको  आता  कुछ  नहीं, बनते अभी महंत।। साहित्यिक   मैदान   म...
अन्ध-भक्ति है रोग
छुआछूत  से  कब  हुआ, देश अपन ये मुक्त?  जाति - भेद  पहले  बहुत, अब  VIP  युक्त।। धर्म  सदा  कर्तव्य  ह...
गन्दा फिर तालाब
क्या  लेखन  व्यापार  है, भला  रहे  क्यों चीख? रोग  छपासी  इस  कदर, गिरकर  माँगे  भीख।। झट  से  झु...
मगर बेचना मत खुद्दारी
यूँ तो सबको है दुश्वारी एक तरफ  मगर बेचना मत खुद्दारी एक तरफ  जाति - धरम में बाँट रहे जो लोगों को  वो करते सचमुच गद्दारी एक तरफ  अक्सर लो...
लेकिन बात कहाँ कम करते
मैं - मैं पहले अब हम करते  लेकिन बात कहाँ कम करते  गंगा - गंगा पहले अब तो  गंगा, यमुना, जमजम करते  विफल परीक्षा या दुर्घटना किसने देखा वो...
विश्व की महान कलाकृतियाँ- पुन: पधारें। नमस्कार!!!