सबके मन को भाती कुर्सी
क्या क्या खेल दिखाती कुर्सी
अपने बन सकते बेगाने
जहाँ बीच में आती कुर्सी
किस्सा कुर्सी का दशकों से
रहकर मौन सुनाती कुर्सी
जो भाषण दें नैतिकता पर
उनको भी अजमाती कुर्सी
तनकर खड़े रहे जो कल तक
अक्सर उन्हें झुकाती कुर्सी
लिखता समय सभी की बातें
जिनको भी बहकाती कुर्सी
लालच छोड़ सुमन फटकारो
जब जब ये इठलाती कुर्सी
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (18-03-2020) को "ऐ कोरोना वाले वायरस" (चर्चा अंक 3644) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कुर्सी का खेल निराला
ReplyDeleteकभी इसकी कभी उसकी, लेकिन यह कभी किसी एक की कभी नहीं होती
बहुत खूब!
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 17 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteअच्छी सोच है पर नई नहीं।
नई रचना- सर्वोपरि?
कुर्सी का खेल ही ऐसा है। सुंदर प्रस्तुति।
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