साहित्यिक बाजार में, अलग अलग हैं संत।
जिनको आता कुछ नहीं, बनते अभी महंत।।
साहित्यिक मैदान में, अब है ठेलमठेल।
क्या सचमुच साहित्य है, अब पैसों का खेल??
जो सामाजिक पक्ष में, लिखते हैं साहित्य।
संभव उनके घर उगे, लेखन का आदित्य।।
अच्छा बनना है कठिन, पर दिखने में झोल।
बिना आचरण ज्ञान जो, दो कौड़ी है मोल।।
लोग सियासी बाँटते, नित नफरत की आग।
कम से कमतर हो रहा, साहित्यिक अनुराग।।
जो समाज का हित गढ़े, क्या होते नादान?
जग में जो अपमान - सा, वो बाँटे सम्मान।।
तिल-तिल नूतन जो करे, खुद में नित्य सुधार।
फिर संभव होता सुमन, रचना में विस्तार।।
Very Nice Post.....
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