मै हो न जाऊँ पागल पागल की देख मस्ती
दुनियाँ मुझे क्यों लगती पागल की एक बस्ती
माथा जो गड़बड़ाया लाये इलाज करने
पहुँचाने साथ आए बस्ती से नेक हस्ती
जिस दिन से छोड़ा फिर से वो लौट के न आये
पागल को मिल रही है पागल की सरपरस्ती
अपनों से दूर पागल, पागल के अपने पागल
जहाँ मौत में ही जीवन और जिन्दगी है सस्ती
कहता सुमन है कुछ कुछ पागल सभी जहाँ में
कहना बहुत है मुश्किल डूबेगी किसकी कश्ती
दुनियाँ मुझे क्यों लगती पागल की एक बस्ती
माथा जो गड़बड़ाया लाये इलाज करने
पहुँचाने साथ आए बस्ती से नेक हस्ती
जिस दिन से छोड़ा फिर से वो लौट के न आये
पागल को मिल रही है पागल की सरपरस्ती
अपनों से दूर पागल, पागल के अपने पागल
जहाँ मौत में ही जीवन और जिन्दगी है सस्ती
कहता सुमन है कुछ कुछ पागल सभी जहाँ में
कहना बहुत है मुश्किल डूबेगी किसकी कश्ती
18 comments:
bahut khoob navrashi ji bahut badhiya kikhte hai aap padh kar man prashann ho gaya .kahin pe nigahein -kahin par nishana
suman
पता नहीं सुमन जी क्या कहना चाह रहे हैं? navrashi ji और kahin pe nigahein -kahin par nishana का अर्थ कम से कम मेरी समझ में नहीं आया। फिर भी खुशी है कि कम से कम वो आये तो
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
समानुभूति में ही संवेदनशीलता निहित है. बहुत सुन्दर रचना.
यह तो समानुभूति नहीं है, सहानुभूति ही है सुमन जी। आपके विचार स्तुत्य हैं लेकिन महान शब्दों के माध्यम से ही महान नहीं हुआ जाता। समानुभूति तो सामान परिस्थिति में पड़ने पर ही हो सकती है, किसी मनोविज्ञानी से इसका निर्धारण करवा कर देख लीजिये। सहानुभूति के थोडे ऊँचे स्तर(जो भी वास्तव में कितना है!), जो व्यक्ति सापेक्ष है, से समानुभूति का धोखा मत खाइये। पुन: यही कहूँगा कि आपके विचार स्तुत्य हैं, जो आदर्श कल्पना की है उसके लिये अभी अपने को और मांजिये।
ye maal zara hat k hai
anand k saath saath anoothapan bhi hai
badhai
भाई श्यामल जी,
सुंदर विवेचना। बधाई।
मेरे विचार में यह संसार एक पागलखाना है, और हम सभी अपनी-अपनी धुन में पागल.....बस इतनी सी बात हर कोई समझ जाए तो सहानुभूति नाम का शब्द ही शेष नहीं रहेगा और सम्स्तिथि के साथ समानुभूति अपने आप ही आ जायेगी....हाँ लेकिन पागलपन सकारात्मक होना चाहिए....ना कि उस तरह का जैसा हमने हाल ही में पहले वियना और फिर पंजाब में देखा....इस बारे में आप मेरे भाव विस्तृत रूप में मेरे ब्लॉग पर पढ़ सकते है.....पता नीचे दिया हुआ है.
साभार
हमसफ़र यादों का.......
जिस दिन से मुझको छोड़ा फिर लौट के न आये।
पागल को मिल रही अब पागल की सरपरस्ती।।
--भूमिका खूब बाँधी-भावनाऐं समझी जा सकती हैं.
यह वाकई दुखद स्थिति है..पागलखाना हो या लम्बे समय से चल रहे रोगी..और असहाय वृद्ध ..परिवार वाले इन्हें वापस लेने नहीं आते..बेहद दुखद सामजिक स्थिति है..हमारे समाज में कहीं तो कुछ नैतिक मूल्यों में कमी है..जो ऐसी नोबत आ जाती है.
-मर्मस्पर्शी संस्मरण .
-कविता के द्वारा आप ने भावों को खूब अभिव्यक्त किया है-
अपनों का साथ छूटा पागल बने हैं अपने।
जहाँ मौत में है जीवन और जिन्दगी है सस्ती।।
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कहता सुमन है कुछ कुछ पागल सभी जहाँ में।
कहना बहुत है मुश्किल डूबेगी किसकी कश्ती।।
bahut hi hridaysparshi marmik rachna, alpna ji ne kaha main usse sahmat hun.
कमाल की विवेचना की है।
जी बहुत ही रोमांच से भरी हुई रचना है आपकी....
आपके चहरे से आपकी रचना झलकती है....
जहाँ मौत में है जीवन और जिन्दगी है सस्ती।।
ये पंक्तियाँ कमाल की हैं
बहुत ही लुभावनी......
अक्षय-मन
क्या कहा जाय....कितनी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है यह....
आप भावुक ह्रदय हैं,आपने उनके दर्द को सिद्दत्त से महसूश किया,काश इसका कुछ अंश भी उनके तथाकथित अपने अनुभूत कर पाते.....
बहुत ही सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना हेतु आपका बहुत बहुत आभार.
अपनों का साथ छूटा पागल बने हैं अपने।
जहाँ मौत में है जीवन और जिन्दगी है सस्ती।।
......waah
जिस दिन से मुझको छोड़ा फिर लौट के न आये।
पागल को मिल रही अब पागल की सरपरस्ती।।
jo aapne mehsoos kiya dekh kar use sahajta se pannon par la sake hain.
जिस दिन से मुझको छोड़ा फिर लौट के न आये।
पागल को मिल रही अब पागल की सरपरस्ती।।
आपने दिल से उस पीडा को समझा है............अभिव्यक्त भी किया है अपनी रचना में और पूरी इमानदारी के साथ.........
सहानुभूति में सच्चाई के अतिरिक्त नाटकीयता भी हो सकती है जो कभी कभी सामाजिक बन्धन में मजबूरीवश प्रदर्शित किया जाता है। लेकिन समानुभूति में यह संभव नहीं। क्योंकि समानुभूति में, कुछ देर के लिए ही सही, वह पीड़ित पात्र बन के जीना पड़ता है।
मै हो न जाऊँ पागल पागल की देख मस्ती।
दुनियाँ मुझे क्यों लगती पागल की एक बस्ती।
श्यामल जी ,
सत्य ही समानुभूति में डूबे पात्र में ही इतनी सम्वेदना सम्भव है . इस गज़ल के नीचे लिखे दोहे भी गम्भीर पीडा की प्रतिध्वनी सुनाई देते हैं . समानुभूति की सम्वेदना का प्रसार निरंतर करते रहे. विश्व कल्याण का यही एकमेव सूत्र है
रोचक
आपकी चिठ्ठी चर्चा समयचक्र में
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