न जाने कितने रूप में, इन्सान यूं पलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
तन साथ साथ रहता, बढ़ती है मन की दूरी।
एक छत के नीचे यारों, है जीने की मजबूरी।
बाहर से प्रेम दीखता, अन्दर छुपा बवंडर।
मुस्कान ये बताती, तूफान प्याली अंदर।
एक आग बुझाते हैं, एक आग उगलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
जब होती चार आँखें, आँखों से होती बातें।
आँखों से प्यार होता, आखों में कटती रातें।
आखों को चुभती आँखें, जो आँखें होती सूनी।
ममता से पूर्ण आँखें, आँखें भी होती खूनी।
एक आँख बिछाते हैं, एक आँख से छलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
जो मुँह चुराये सच से, उसकी भला क्या कीमत।
इन्सान वो है सचमुच, जिसकी हो नेक नीयत।
कुछ काफिलों में चलकर, शैतान बन गये हैं।
कुछ हैं अभी जो सच में, भगवान बन गये हैं।
एक सर झुका के जीते, एक शान से चलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
गर आदमी न हो तो, अधूरा है आदमी।
और आदमी से आदमी, बनता है आदमी।
फिर कत्ल क्यों करता है, आदमी का आदमी।
जब आदमी के प्यार में, रोता है आदमी।
एक हाथ बढ़ाते हैं, एक हाथ क्यों मलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
जीने का ढ़ंग अपना, अपनी यहाँ बोली।
कहीं रंग की होली है, कहीं खून की होली।
कोई सर को छुपाने के लिये, छत हैं बनाते।
कई टूटे हुये छत से, अपने सर को बचाते।
एक सुमन को सजाते, एक उसको मसलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
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33 comments:
न जाने कितने रूप में, इन्सान यूं पलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
बहुत ही सुन्दर भाव .............भावो को बहुत ही सुन्दरता से पिरोया है आपने .............शब्द भी सुन्दर है कविता की तरह .......बहुत बढिया
बहुत सुंदर.
न जाने कितने रूप में, इन्सान यूं पलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
-बहुत सुन्दर!! वाह!
insaan ki bakhubi vyakhkhya ki aapne,,
atynt bhavpurn kavita..
badhiya laga..bahut badhiya..
dhanywaad..sundar rachana ke liye..
क्या बात है. दीप सा जलना द्वेष में जलना भी हो सकता है। सही लिखा। इनसान के ना जाने कितने चेहरे..कितने रुप. पहचान ना सकेंगे.बहुत सारगर्भित रचना।
बहुत सुन्दर्।
न जाने कितने रूप में, इन्सान यूं पलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
bahut sundar panktiyan hain bahiya..
insaani roop ki acchi vyakhya kar di aapne..
bahut khoob..
badhai...
-बहुत सुन्दर!!
आदमी पिटवा रहा है, आदमी लुटवा रहा।
आदमी को आदमी ही, आज है लुटवा रहा।।
आदमी बरसा रहा, बारूद की हैं गोलियाँ।
आदमी ही बोलता, शैतानियत की बोलियाँ।।
आदमी ही आदमी का,को आज है खाने लगा।
आदमी कितना घिनौना, कार्य अपनाने लगा।।
आखों को चुभती आँखें, जो आँखें होती सूनी।
ममता से पूर्ण आँखें, आँखें भी होती खूनी।
एक आँख बिछाते हैं, एक आँख से छलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
bahut sunder
न जाने कितने रूप में, इन्सान यूं पलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं
aapke sundar bhaav aur shabdon ke milan se lagta hai कविता bahti huyee aa rahi hai............ bahoot hi sundar likha hai
कोई सर को छुपाने के लिये, छत हैं बनाते।
कई टूटे हुये छत से, अपने सर को बचाते।
......bahut badhiyaa
बहुत सुन्दर. वाह!
bahut hi lajawaab ,bejod,adbhut prastuti .aadmi ka asli mukhota dikha diya hai.
श्यामल जी,
मन में पल राग-द्वेष दोनों की खूब ख़बर ली है। और इस बहाने हमारे सामाजिक अधोपतन को भी सामने लाया है :-
तन साथ साथ रहता, बढ़ती है मन की दूरी।
एक छत के नीचे यारों, है जीने की मजबूरी।
बाहर से प्रेम दीखता, अन्दर छुपा बवंडर।
मुस्कान ये बताती, तूफान प्याली अंदर।
एक आग बुझाते हैं, एक आग उगलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
बहुत सुन्दर....
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
वाह !!! वाह !!! वाह !!!
लाजवाब शब्द एवं बिम्ब प्रयोग किया है आपने.....
और कितनी सुन्दर बात कही, वाह !!! सच है,कोई अपने जीवन को दीपक बना दूसरों के जीवन को रौशन करता है ,तो कोई अपनी आग से दूसरों के घर जलाता है........
जीवन दर्शन और चिंतन समेटे इस लाजवाब रचना के लिए आपका बहुत बहुत आभार.....
बड़ा ही सुखद लगा यह पढना....
स्नेह समर्थन आप सभी का मिला मुझे भरपूर।
जैसे तैसे कुछ लिखने को सुमन हुआ मजबूर।।
आप सबका आभारी हूँ।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
आप इतना सुंदर और इतना..इतने अनवरत कैसे लिख लेते हैं ?
अद्भुत ....
एक सुमन को सजाते, एक उसको मसलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
बेहतरीन रचना के लिये साधुवाद
आपने बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है! रचना की हर एक पंक्तियाँ बहुत ही सुंदर है और हर एक शब्द को आपने शानदार रूप से प्रस्तुत किया है! ! मुझे आपकी ये रचना बहुत पसंद आया!
जीने का ढ़ंग अपना, अपनी यहाँ बोली।
कहीं रंग की होली है, कहीं खून की होली।
कोई सर को छुपाने के लिये, छत हैं बनाते।
कई टूटे हुये छत से, अपने सर को बचाते।
एक सुमन को सजाते, एक उसको मसलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
bahut achchha likha hai aapne. badhai!
न जाने कितने रूप में, इन्सान यूं पलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
आदमी के इतने रूप क्या कहने
एक सर झुका के जीते, एक शान से चलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।न जाने कितने रूप में, इन्सान यूं पलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
श्यामल जी बहुत ही लाजवाब रचना है बहुत बहुत बधाई
जो मुँह चुराये सच से, उसकी भला क्या कीमत।
इन्सान वो है सचमुच, जिसकी हो नेक नीयत।
कुछ काफिलों में चलकर, शैतान बन गये हैं।
कुछ हैं अभी जो सच में, भगवान बन गये हैं।
एक सर झुका के जीते, एक शान से चलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।
उत्तम भाव को लेकर चली है यहाँ पर आपकी लेखनी ..
बहुत खूब !!
आज आपके ब्लोग पर आया तो कुछ अच्छी रचनायें पढने को मिली।
बहुत सुंदर रचना
आप और अच्छी रचनायें लिखे ओर हमें अच्छा पढने को मिले, यही कामना है हमारी।
आपका अनुज
@गोविन्द K.@
जीने का ढ़ंग अपना, अपनी यहाँ बोली।
कहीं रंग की होली है, कहीं खून की होली।
बहुत सुन्दर|
'गर आदमी न हो तो, अधूरा है आदमी।'
- बहुत सुन्दर.
जो मुँह चुराये सच से, उसकी भला क्या कीमत।
इन्सान वो है सचमुच, जिसकी हो नेक नीयत।
वाह बहुत सुंदर!
बहुत सुन्दर रचना. दिल के बहुत करीब लिख दिए हैं. अच्छा लगा
बहुत ही सुंदर रचना। बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
wah kahne se man nahin bhar raha...
jee han bhai, yahan har admee ke andar chip gaye hain 10-20 aadmee.
congtttt
ranjit
दीप सा जलना और द्वेष में जलना ,छत सर छुपाने और सर बचाने, कहीं आदमी शैतान बन गया कहीं भगवान् बन गया | आपकी कविता पढ़ते पढ़ते नजीर अकबराबादी याद आगये उनका रचा हुआ ""आदमी नामा"" तो पढ़ा होगा आपने =दुनिया में बादशाह है सो है वह भी आदमी
और मुफलिसों_गदा है सो है वह भी आदमी
जरदार ,बेनवा है सो है वह भी आदमी
नेअमत जो खा रहा है सो है वह भी आदमी
namaskaar shyamal ji aap ki kavitao me hamesa se hi kuchh alag baat rahti hai ,, ythart ke dharatl par likhi gayi aur manviy prvrti ke dohre pan ko darsaati ye kavita bhut kuchh sochne aur badlne ko majboor karti hai visangatiyo ke saath kaise nekniyti aur insaniyat rahti hai iska aap ne khub behtreen dhang se chitran kiya hai
mera prnaam swikaar kare
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