Friday, May 6, 2011

रीति बहुत विपरीत

जीवन में नित सीखते, नव-जीवन की बात।
प्रेम कलह के द्वंद में, समय कटे दिन रात।।

चूल्हा-चौका सँग में, और हजारो काम।
डरते हैं पतिदेव भी, शायद उम्र तमाम।।

झाड़ू, कलछू, बेलना, आलू और कटार।
सहयोगी नित काज में, और कभी हथियार।।

जो ज्ञानी व्यवहार में, करते बाहर प्रीत।
घर में अभिनय प्रीत के, रीति बहुत विपरीत।।

मेहनत बाहर में पति, देख थके घर-काज।
क्या करते, कैसे कहें, सुमन आँख में लाज।।

13 comments:

SAJAN.AAWARA said...

PREM KLAH KE DVAND ME SAMAY KTE DIN RAAT..,... BHAVPURN RACHNA HAI. . . . . . . .JAI HIND JAI BHARAT

Arvind Mishra said...

रोजमर्रा की कविता :)

Satish Saxena said...

अरविन्द भाई का कमेन्ट देख आनंद आ गया ! वाकई ...
शुभकामनायें आपको भाई जी !

Kailash Sharma said...

प्रेम कलह के द्वंद में समय कटे दिन रात।।

...बहुत सही और सुन्दर..

प्रवीण पाण्डेय said...

न जाने कितने चक्रों में फँसा हुआ जीवन।

Urmi said...

ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! उम्दा प्रस्तुती! बधाई!

कविता रावत said...

बाहर से आकर पति देख थके घर-काज।
क्या करते, कैसे कहे सुमन आँख में लाज।।
वाह! बहुत बढ़िया ...शुभकामना

राज भाटिय़ा said...

सुंदर कविता जी... घर घर की यही बात

गुड्डोदादी said...

चूल्हा-चौका संग में और हजारो काम।
इस कारण डरते पति शायद उम्र तमाम।।

बेचारा पति


दादी को लिट्टीचोखा तो बना के खिलाई नहीं

Sawai Singh Rajpurohit said...

बहुत खूब

Rachana said...

rochak kavita .
sunder prastuti badhai

PAWAN VIJAY said...

यही दुनिया की है रीति

PAWAN VIJAY said...

यही है दुनिया की रीति

सुन्दर भाव्

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