कौन मुझसे पूछता अब किस तरह से जी रहा हूँ
प्यास है पानी के बदले आँसुओं को पी रहा हूँ
जख्म अपनों से मिले फिर दर्द कैसा, क्या कहें
आसमां ही फट गया तो बैठकर के सी रहा हूँ
चाहने वाले हजारों जब तेरे शोहरत के दिन थे
वक्त गर्दिश का पड़ा तो साथ में मैं ही रहा हूँ
बादलों सा नित भटकना अश्क को चुपचाप पीना
याद कर चाहत में तेरी एक दिन मैं भी रहा हूँ
क्या सुमन किस्मत है तेरी आ के मधुकर रूठ जाता
देवता के सिर से गिर के कूप का पानी रहा हूँ
Wednesday, June 15, 2011
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रचना में विस्तार
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अन्ध-भक्ति है रोग
छुआछूत से कब हुआ, देश अपन ये मुक्त? जाति - भेद पहले बहुत, अब VIP युक्त।। धर्म सदा कर्तव्य ह...
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गन्दा फिर तालाब
क्या लेखन व्यापार है, भला रहे क्यों चीख? रोग छपासी इस कदर, गिरकर माँगे भीख।। झट से झु...
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मगर बेचना मत खुद्दारी
यूँ तो सबको है दुश्वारी एक तरफ मगर बेचना मत खुद्दारी एक तरफ जाति - धरम में बाँट रहे जो लोगों को वो करते सचमुच गद्दारी एक तरफ अक्सर लो...
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लेकिन बात कहाँ कम करते
मैं - मैं पहले अब हम करते लेकिन बात कहाँ कम करते गंगा - गंगा पहले अब तो गंगा, यमुना, जमजम करते विफल परीक्षा या दुर्घटना किसने देखा वो...
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19 comments:
बहुत खूब .......लगता है दिल की गहराइयों से लिखी गई हो.
बेहतरीन ग़ज़ल....
कौन मुझसे पूछता अब किस तरह से जी रहा हूँ
प्यास है पानी के बदले आँसुओं को पी रहा हूँ
बेहतरीन गज़ल
जख्म अपनों से मिले फिर दर्द कैसा, क्या कहें
आसमां ही फट गया तो बैठकर के सी रहा हूँ....
बहुत ख़ूबसूरत गज़ल..
चाहने वाले हजारों जब तेरे शोहरत के दिन
वक्त गर्दिश का पड़ा तो साथ में मैं ही रहा हूँ ..
बहुत लाजवाब शेर है इस निहायत खूबसूरत ग़ज़ल का .. बधाई ...
Aapkee rachnayen nishabd kar deteen hain!
जख्म अपनों से मिले फिर दर्द कैसा, क्या कहें
आसमां ही फट गया तो बैठकर के सी रहा हूँ
चाहने वाले हजारों जब तेरे शोहरत के दिन
वक्त गर्दिश का पड़ा तो साथ में मैं ही रहा हूँ
बहुत खूबसूरत गज़ल ..
नये-नये प्रतीक बिम्ब .... बहुत ख़ूब !
bahut badhiya likha hai
आपकी इस उत्कृष्ट प्रवि्ष्टी की चर्चा कल शुक्रवार के चर्चा मंच पर भी है!
कई बार तो पी चुका हूँ,
किन्तु फिर फिर जी रहा हूँ।
जख्म अपनों से मिले फिर दर्द कैसा, क्या कहें
आसमां ही फट गया तो बैठकर के सी रहा हूँ
Khoob Kaha.... Sunder rachna
behtareen badhai
बहुत उम्दा रचना है
क्या कहेँ आए थे किस उम्मीद से किस दिल मेँ हम
इक जनाज़ा बन के उठते हैँ तेरी महफ़िल से हम
dil ki gharai se likhi hui ,dard main doobi bahut hi sambedansheel rachanaa.badhaai sweekaren.
sundar hai .
क्या सुमन किस्मत है तेरी आ के मधुकर रूठ जाता
देवता के सिर से गिर के कूप का पानी रहा हूँ
...behtreen prastuti..
apki lekhni ka jaadu dil ki gehraiyon tak pahunchta hai.
bahut badhiya gazel.
बहुत सुन्दर गज़ल है श्यामल जी ! हर शेर बेहतरीन है और हर भाव मुकम्मल ! बधाई स्वीकार करें !
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