Thursday, November 8, 2012

सोने की आरजू में सोना चला गया

जीवन को समझने की, सारी हैं कोशिशें
जितना भी कर सका हूँ, प्यारी हैं कोशिशें
जीने के सिलसिले में उठते हैं नित सवाल
निकलेगा हल, सुमन की जारी हैं कोशिशें

अपने ही घर में देखो, मेहमान कौन है
अपनी ही बुराई से, अनजान कौन है
नजरें जिधर भी जातीं बस आदमी दिखे
खोजो सुमन कि भीड़ में, इन्सान कौन है

जो चौक में बैठा था, कोना चला गया
जादू के साथ पद का, टोना चला गया
पाने के लिए खोने की, रीति है सुमन
सोने की आरजू में, सोना चला गया

रिश्तों में जो थे अपने, वो दूर हो गए
कहते हैं हालात से मजबूर हो गए
चेहरे की देख रौनक, ऐसा लगा सुमन
मजबूर ये नहीं हैं, मगरूर हो गए

कहते सभी को मिलता, जितना नसीब है
जिसको भी पूछो कहता, वह तो गरीब है
मेहनत का फल ही मिलता, बातें नसीब की
उलझी सुमन की दुनिया, बिल्कुल अजीब है

7 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर रचना।

गुड्डोदादी said...


कहाँ जमा करूं उम्र के दिन कोई किनारा ही कोई सहारा ही नहीं, गुल्लक भी गोल है पृथ्वी की तरह
न जाने क्यों जिन्दगी भी बजती है घूँघरू की तरह

वीना श्रीवास्तव said...

लाजवाब....

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 02/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद!

कौशल लाल said...

सुन्दर रचना।

निवेदिता श्रीवास्तव said...

प्रभावित करता भाव प्रवाह .......

Unknown said...

सुन्दर ,सरल और प्रभाबशाली रचना। बधाई।
कभी यहाँ भी पधारें।
सादर मदन
http://saxenamadanmohan1969.blogspot.in/
http://saxenamadanmohan.blogspot.in/

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