राजनीति में आजकल, नैतिकता है रोग।
अभी करोड़ों में बिके, दो कौड़ी के लोग।।
चीजें मँहगीं सब हुईं, लोग हुए हलकान।
केवल सस्ती है अभी, इन्सानों की जान।।
संसाधन विकसित हुए, मगर बुझी ना प्यास।
वादा करते हैं सभी, टूट रहा विश्वास।।
अब होते हैं हल कहाँ, आम लोग के प्रश्न?
चिन्ता दिल्ली को नहीं, रोज मनाते जश्न।।
प्रायः पूजित हैं अभी, नेता औ भगवान।
काम न आए वक्त पर, तब रोता इन्सान।।
सुनता किसकी कौन अब, प्रायः सब मुँहजोर।
टूट रहे हैं नित्य ही, सम्बन्धों की डोर।।
रोने से केवल सुमन, क्या सुधरेगा हाल?
हाथ मिले जब लोग के, सुलझे तभी सवाल।।
7 comments:
सुनते किसकी कौन अब, प्रायः सब मुँहजोर।
टूट रहे हैं नित सुमन, सम्बन्धों की डोर।।
(किसे कहें अपना पराया सभी क्यों मचाते शोर )
सच कहा है, सपाट कहा है, सुन्दर कहा है।
कुल दोहे झकझोरते, ठौर-ठौर पर ईति |
भीति लगे अब प्रीति से, लागे भली अनीति ||
सच सच कहा आपने !
चीजें मँहगीं सब हुईं, लोग हुए हलकान।
केवल सस्ती है सुमन, इन्सानों की जान।।
...बहुत खूब! सभी दोहे बहुत ख़ूबसूरत...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (05-06-2013) के "योगदान" चर्चा मंचःअंक-1266 पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चीजें मँहगीं सब हुईं, लोग हुए हलकान।
केवल सस्ती है सुमन, इन्सानों की जान।।
यही हालत हो गयी है आज,मौत सस्ती हो गयी है
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