Wednesday, March 25, 2015

खुद को नित पहचान

श्रम जीवन की डोर तो, है पतंग इक ख्वाब।
जीवन अगर सवाल है, मिलता यहीं जवाब।।

हँसकर जीने की कला, कितने को मालूम?
जिसने सीखा, जी लिया, शेष रहे महरूम।।

बिना प्रेम क्या जिन्दगी, प्रेम जगत सौगात।
मगर प्रेम के गीत में, अक्सर गम की बात।।

सिर्फ सांस जीवन नहीं, साथ होश औ जोश।
सांसें उनकी भी चले, अक्सर जो बेहोश।।

रिश्तों से जीवन चले, रिश्ता है विश्वास।
तार तार रिश्ते हुए, उन पे शक जो पास।।

जुदा हुए आंसू गिरे, कहीं मिलन से भाय।
सज्जन, दुर्जन भेद पर, आंखें नम हो जाय।।

जीवन के हर रंग में, खुद को नित पहचान।
सुमन रंग के खेल में, मिट जाते इन्सान।।

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

नवरात्रों की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (27-03-2015) को "जीवन अगर सवाल है, मिलता यहीं जवाब" {चर्चा - 1930} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Ahir said...

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Anonymous said...

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