दोहन जारी अब तलक, प्रकृति हुई कंगाल।
बार बार भूकम्प से, जर्जर अब नेपाल।।
कंकरीट जंगल बढ़ा, गाँव शहर बाजार।
पानी धरती चीरकर, पीने को लाचार।।
निज स्वारथ में हम करें, रोज प्रकृति अपमान।
प्रकृति जहाँ नाखुश हुई, क्यों दोषी भगवान??
गर्भ धरा का खोदकर, पाया रत्न अनेक।
शून्य-पेट कबतक धरा, रखती खुद को टेक।।
नियति नियम पर चल सुमन, कम होगा जंजाल।
दुनिया में सब जी सके, ना हो फिर भूचाल।।
5 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-05-2015) को "झुकी पलकें...हिन्दी-चीनी भाई-भाई" {चर्चा अंक - 1977} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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सटीक दोहे
सुंदर और सार्थक दोहे
sundar dohe ...
बहुत सार्थक
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