उलझन में सब लोग हैं, यह मन का विज्ञान।
सुख अपना दुख गैर का, कम लगता श्रीमान।।
नहीं बराबर दाल की, घर की मुर्गी आज।
दाल अभी मँहगी हुई, बदलो कहन रिवाज।।
सारे सुख मुझको मिले, ऐसी जब तक सोच।
इसीलिए तैयार सब, कैसे किसको नोच।।
जिसे योग्यता से अधिक, मिल जाता सम्मान।
अक्सर अच्छे लोग का, वो करता अपमान।।
एक पुत्र अफसर बना, बेच रहा इक तेल।
ये किस्मत के खेल हैं, या कर्मों के खेल??
कुछ लोगों को नींद में, चलने का है रोग।
आँखें जिनकी हैं खुली, जागे कितने लोग।।
सभ्य हुए इतने सुमन, फेंक रहे तेजाब।
मना किया लिख के जहां, वहीं करे पेशाब।
सुख अपना दुख गैर का, कम लगता श्रीमान।।
नहीं बराबर दाल की, घर की मुर्गी आज।
दाल अभी मँहगी हुई, बदलो कहन रिवाज।।
सारे सुख मुझको मिले, ऐसी जब तक सोच।
इसीलिए तैयार सब, कैसे किसको नोच।।
जिसे योग्यता से अधिक, मिल जाता सम्मान।
अक्सर अच्छे लोग का, वो करता अपमान।।
एक पुत्र अफसर बना, बेच रहा इक तेल।
ये किस्मत के खेल हैं, या कर्मों के खेल??
कुछ लोगों को नींद में, चलने का है रोग।
आँखें जिनकी हैं खुली, जागे कितने लोग।।
सभ्य हुए इतने सुमन, फेंक रहे तेजाब।
मना किया लिख के जहां, वहीं करे पेशाब।
4 comments:
सारे सुख मुझको मिले, ऐसी जब तक सोच।
इसीलिए तैयार सब, कैसे किसको नोच।।
जिसे योग्यता से अधिक, मिल जाता सम्मान।
अक्सर अच्छे लोग का, वो करता अपमान।।
...सटीक ..
बेहतरीन!
बहुत सुन्दर
बहुत खूब
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