Saturday, May 23, 2009

संवाद

काम कितना कठिन है जरा सोचना।
गाँव अंधों का हो आईना बेचना।।

गीत जिनके लिए रोज लिखता मगर।
बात उन तक न पहुँचे तो कटता जिगर।
कैसे संवाद हो साथ जन से मेरा,
जिन्दगी बीत जाती न मिलती डगर।
बन के तोता फिर गीता को क्यों बाँचना।
गाँव अंधों का हो आईना बेचना।।

बिन माँगे सलाहों की बरसात है।
बात जन तक जो पहुँचे वही बात है।
दूरियाँ कम करूँ जा के जन से मिलूँ,
कर सकूँ गर इसे तो ये सौगात है।
बिन पेंदी के बर्तन से जल खींचना।
गाँव अंधों का हो आईना बेचना।।

सिर्फ अपने लिए क्या है जीना भला।
बस्तियों में चला मौत का सिलसिला।
दूसरे के हृदय तार को छू सकूँ,
सीख लेता सुमन काश ये भी कला।
आम को छोड़कर नीम को सींचना।
गाँव अंधों का हो आईना बेचना।।

18 comments:

Unknown said...

bhai vah vah
ANDHON K GAON ME AAINA BECHNA k madhyam se apne geet ko sakshat jeevnt khada kar dia .......
BADHAI
bahut achhi rachna
bahut umda vichar

शारदा अरोरा said...

बहुत खूब

प्रिया said...

सिर्फ अपने लिए क्या है जीना भला।
बस्तियों में चला मौत का सिलसिला।
दूसरे के हृदय तार को छू सकूँ,
सीख लेता सुमन काश ये भी कला।

AApne ye kala seekh li hain sir, that's why people are giving you response...achchi kavita

Yogesh Verma Swapn said...

सिर्फ अपने लिए क्या है जीना भला।
बस्तियों में चला मौत का सिलसिला।
दूसरे के हृदय तार को छू सकूँ,
सीख लेता सुमन काश ये भी कला।
आम को छोड़कर नीम को सींचना।
गाँव अंधों का हो आईना बेचना।।

bahut umda suman ji, hamesha ki tarah behatareen geet.badhai sweekaren.

aur han, aapka mere blog par special comment ke liye special thanks, punah dhanyawaad.

hem pandey said...

'बात जन तक जो पहुँचे वही बात है।
दूरियाँ कम करूँ जा के जन से मिलूँ,
कर सकूँ गर इसे तो ये सौगात है।'

****************************************
'सिर्फ अपने लिए क्या है जीना भला।
बस्तियों में चला मौत का सिलसिला।
दूसरे के हृदय तार को छू सकूँ,'

-बहुत सुन्दर. साधुवाद.

Vinay said...

सिर्फ अपने लिए क्या है जीना भला।
बस्तियों में चला मौत का सिलसिला।

वाह साहब, बहुत ख़ूब

अमिताभ श्रीवास्तव said...

दूसरे के हृदय तार को छू सकूँ,
सीख लेता सुमन काश ये भी कला।

wah, janaab, bahut khoob likha aapne/
apni in do pankti me poori rachna ki jaan he/
sadhuvad

ज्योति सिंह said...

achchhi rachna ,achchhe khayal .

Prem Farukhabadi said...

बहुत सुन्दर!!!
बिन पेंदी के बर्तन से जल खींचना।
गाँव अंधों का हो आईना बेचना।।

Sajal Ehsaas said...

sabhee vichaar bahut umdaa hai...kavita bahut achhi lag rahee hai...abs ek baat jo maine mahsoos ki hai

गाँव अंधों का हो आईना बेचना।। ye pankti halki atpatee si maloom pad rahee hai...ho sakta hai ye meree hi kamee ho par padhte huye aisa mahsoos huaa to keh raha hoon

Urmi said...

आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
बहुत ही उम्दा रचना लिखा है आपने जो काबिल ए तारीफ है!

श्यामल सुमन said...

सबको है आभार आपने भेजा हृदय का भाव।
सजल को अटपट क्या लगी कुछ तो करें सुझाव।

।सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

मुकेश कुमार तिवारी said...

श्यामल सुमन जी,

अपने हर एक बंद में आदमी होने की बेबसी / लाचारी को ढोती कविता बस दिल को छू लेती है। प्रतीको का उम्दा प्रयोग किया है।

वाह!!

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

बाल भवन जबलपुर said...

अति सुन्दर
बधाइयां
जारी रहे
सादर

www.dakbabu.blogspot.com said...

सिर्फ अपने लिए क्या है जीना भला।
बस्तियों में चला मौत का सिलसिला।
दूसरे के हृदय तार को छू सकूँ,
सीख लेता सुमन काश ये भी कला।
आम को छोड़कर नीम को सींचना।
गाँव अंधों का हो आईना बेचना।। ....Dil ko chhune wali panktiyan.
________________________________
आपने डाक टिकट तो खूब देखे होंगे...पर "सोने के डाक टिकट" भी देखिये. डाकिया बाबू के ब्लॉग पर आयें तो सही !!

निर्मला कपिला said...

बडी देर से आये हैं मगर टिप्प्णी तो लाये हैं
बहुत बडिया रचना है बहुत सुन्दर भावनायें हैं शुभकामनायें आभार्

ज्योति सिंह said...

bahut badhiya aur achchhe vichar.

स्वप्न मञ्जूषा said...

काम कितना कठिन है जरा सोचना।
गाँव अंधों का हो आईना बेचना।।
बहुत बढ़िया लिखा है आपने,
अनुपम , अत्युत्तम

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