अब तो बगिया में बाज़ार लगने लगा
वह सुमन जो था कोमल वो चुभने लगा
आये ऋतुराज कैसे इजाज़त बिना
राज दरबार पतझड़ का सजने लगा
मुतमइन थे बहुत दूर में आग है
क्या करें अब मेरा घर भी जलने लगा
जिस नदी के किनारे बसी सभ्यता
क्यों वहाँ से सभी घर उजड़ने लगा
मिले शोहरत को रक्षक है इज़्ज़त नगन
रोज माली चमन को निगलने लगा
बात अधिकार की जानते हैं सभी
अपने कर्तव्य से क्यों मुकरने लगा
चुप भला क्यों रहूँ कुछ मेरा हक़ भी है
इनसे लड़ने को मन अब मचलने लगा
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रचना में विस्तार
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अन्ध-भक्ति है रोग
छुआछूत से कब हुआ, देश अपन ये मुक्त? जाति - भेद पहले बहुत, अब VIP युक्त।। धर्म सदा कर्तव्य ह...
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गन्दा फिर तालाब
क्या लेखन व्यापार है, भला रहे क्यों चीख? रोग छपासी इस कदर, गिरकर माँगे भीख।। झट से झु...
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मगर बेचना मत खुद्दारी
यूँ तो सबको है दुश्वारी एक तरफ मगर बेचना मत खुद्दारी एक तरफ जाति - धरम में बाँट रहे जो लोगों को वो करते सचमुच गद्दारी एक तरफ अक्सर लो...
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लेकिन बात कहाँ कम करते
मैं - मैं पहले अब हम करते लेकिन बात कहाँ कम करते गंगा - गंगा पहले अब तो गंगा, यमुना, जमजम करते विफल परीक्षा या दुर्घटना किसने देखा वो...
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विश्व की महान कलाकृतियाँ-
20 comments:
है कशिश विचारों में इतनी कि,
कुछ कहने को मन करने लगा है।
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अच्छी रचना के लिए बधाई
सुंदरतम भाव और वैसी ही लाजवाब अभिव्यक्ति.
रामराम.
अब तो बगिया में बाज़ार लगने लगा।
वह सुमन जो था कोमल वो चुभने लगा।।..
अच्छी रचना,बधाई.
अब तो बगिया में बाज़ार लगने लगा।
वह सुमन जो था कोमल वो चुभने लगा।।
जब शुरुआत ही ऐसे खुब्सूरत नज़्मो से हो तो बाकी के क्या कहने..........बहुत सुन्दर
Wah..wa
roz maali chaman ko nigalne laga.........
bhai kya baat hai !
waah !
लग गया बाज़ार बगिया में, यही अफ़सोस है,
आग लगने पर मैं समझा घर मेरा २ कोस है,
भक्षक बना रक्षक, सो घर तो आप उजड़ेगा यहाँ,
देखकर सब बुत बना रह गया, तो मेरा दोस (दोष) है.
साभार
हमसफ़र यादों का.......
मुतमइन थे बहुत दूर में आग है।
क्या करें अब मेरा घर भी जलने लगा।।
...बहुत सुन्दर रचना..
lajawab rachna
अब तो बगिया में बाज़ार लगने लगा।
वह सुमन जो था कोमल वो चुभने लगा।।
आये ऋतुराज कैसे इजाज़त बिना।
राज दरबार पतझड़ का सजने लगा।।
अच्छी बहुत सुन्दर रचना.बधाई.
सुन्दर भाव्मय रचना है आभार्
lajawaab bhavmayi rachna
मुतमइन थे बहुत दूर में आग है।
क्या करें अब मेरा घर भी जलने लगा।।
बखूबी कहा है आपने. यह मुतमईनियत ही तो हालात से हमे बेखबर किये हुए है.
भला चुप क्यों रहूँ कुछ मेरा हक़ भी है।
इनसे लड़ने को मन अब मचलने लगा।।
मचलती पंक्तियाँ । धन्यवाद ।
जिस नदी के किनारे बसी सभ्यता।
क्यों वहाँ से सभी घर उजड़ने लगा।।
मिले शोहरत को रक्षक है इज़्ज़त नगन।
रोज माली चमन को निगलने लगा।।
बात अधिकार की जानते हैं सभी।
अपने कर्तव्य से क्यों मुकरने लगा।।
भला चुप क्यों रहूँ कुछ मेरा हक़ भी है।
इनसे लड़ने को मन अब मचलने लगा।।
khoobsurat
bahut zyada achha likhte hai aap...apne fans me mujhe ginna shuru kar dijiye ab :)
आप सबके लागातार समर्थन के प्रति हार्दिक आभार और साथ में "प्यासा सजल" की भावना की जय हो। यूँ ही स्नेह बनाये रखें।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.
हमेशा की तरह सुन्दर रचना।
बधाई।
सामाजिक बदलावों की तीखी पडताल की है आपने। बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
मुतमइन थे बहुत दूर में आग है।
क्या करें अब मेरा घर भी जलने लगा।।
बहुत खूब!
अच्छी रचना है.
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