Saturday, June 13, 2009

चुभन

अब तो बगिया में बाज़ार लगने लगा
वह सुमन जो था कोमल वो चुभने लगा

आये ऋतुराज कैसे इजाज़त बिना
राज दरबार पतझड़ का सजने लगा

मुतमइन थे बहुत दूर में आग है
क्या करें अब मेरा घर भी जलने लगा

जिस नदी के किनारे बसी सभ्यता
क्यों वहाँ से सभी घर उजड़ने लगा

मिले शोहरत को रक्षक है इज़्ज़त नगन
रोज माली चमन को निगलने लगा

बात अधिकार की जानते हैं सभी
अपने कर्तव्य से क्यों मुकरने लगा

चुप भला क्यों रहूँ कुछ मेरा हक़ भी है
इनसे लड़ने को मन अब मचलने लगा

20 comments:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

है कशिश विचारों में इतनी कि,
कुछ कहने को मन करने लगा है।
----------------------------
अच्छी रचना के लिए बधाई

ताऊ रामपुरिया said...

सुंदरतम भाव और वैसी ही लाजवाब अभिव्यक्ति.

रामराम.

डॉ. मनोज मिश्र said...

अब तो बगिया में बाज़ार लगने लगा।
वह सुमन जो था कोमल वो चुभने लगा।।..
अच्छी रचना,बधाई.

ओम आर्य said...

अब तो बगिया में बाज़ार लगने लगा।
वह सुमन जो था कोमल वो चुभने लगा।।

जब शुरुआत ही ऐसे खुब्सूरत नज़्मो से हो तो बाकी के क्या कहने..........बहुत सुन्दर

योगेन्द्र मौदगिल said...

Wah..wa

Unknown said...

roz maali chaman ko nigalne laga.........
bhai kya baat hai !
waah !

Anonymous said...

लग गया बाज़ार बगिया में, यही अफ़सोस है,
आग लगने पर मैं समझा घर मेरा २ कोस है,
भक्षक बना रक्षक, सो घर तो आप उजड़ेगा यहाँ,
देखकर सब बुत बना रह गया, तो मेरा दोस (दोष) है.

साभार
हमसफ़र यादों का.......

Anonymous said...

मुतमइन थे बहुत दूर में आग है।
क्या करें अब मेरा घर भी जलने लगा।।

...बहुत सुन्दर रचना..

अनिल कान्त said...

lajawab rachna

समयचक्र said...

अब तो बगिया में बाज़ार लगने लगा।
वह सुमन जो था कोमल वो चुभने लगा।।

आये ऋतुराज कैसे इजाज़त बिना।
राज दरबार पतझड़ का सजने लगा।।

अच्छी बहुत सुन्दर रचना.बधाई.

निर्मला कपिला said...

सुन्दर भाव्मय रचना है आभार्

vandana gupta said...

lajawaab bhavmayi rachna

M Verma said...

मुतमइन थे बहुत दूर में आग है।
क्या करें अब मेरा घर भी जलने लगा।।
बखूबी कहा है आपने. यह मुतमईनियत ही तो हालात से हमे बेखबर किये हुए है.

Himanshu Pandey said...

भला चुप क्यों रहूँ कुछ मेरा हक़ भी है।
इनसे लड़ने को मन अब मचलने लगा।।

मचलती पंक्तियाँ । धन्यवाद ।

प्रिया said...

जिस नदी के किनारे बसी सभ्यता।
क्यों वहाँ से सभी घर उजड़ने लगा।।

मिले शोहरत को रक्षक है इज़्ज़त नगन।
रोज माली चमन को निगलने लगा।।

बात अधिकार की जानते हैं सभी।
अपने कर्तव्य से क्यों मुकरने लगा।।

भला चुप क्यों रहूँ कुछ मेरा हक़ भी है।
इनसे लड़ने को मन अब मचलने लगा।।

khoobsurat

Sajal Ehsaas said...

bahut zyada achha likhte hai aap...apne fans me mujhe ginna shuru kar dijiye ab :)

श्यामल सुमन said...

आप सबके लागातार समर्थन के प्रति हार्दिक आभार और साथ में "प्यासा सजल" की भावना की जय हो। यूँ ही स्नेह बनाये रखें।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

हमेशा की तरह सुन्दर रचना।
बधाई।

Science Bloggers Association said...

सामाजिक बदलावों की तीखी पडताल की है आपने। बधाई।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Alpana Verma said...

मुतमइन थे बहुत दूर में आग है।
क्या करें अब मेरा घर भी जलने लगा।।

बहुत खूब!

अच्छी रचना है.

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