Monday, June 22, 2009

किरदार

बाँटी  है  जिसने  तीरगी  उसकी  ही  बन्दगी
हर  रोज   नयी   बात  सिखाती  है  जिन्दगी

क्या  फर्क  रहनुमा  और  कातिल में है यारो
गर  सामने   दोनों   तो  लजाती  है  जिन्दगी

लो  छिन  गए  खिलौने बचपन भी लुट गया
जो  बोझ  किताबों  का  दबाती  है  जिन्दगी

है  वोट  अपनी  लाठी  क्यों  भैंस  है  उनकी
क्या  चाल  सियासत  की पढ़ाती है जिन्दगी

गिनती  में  सिमटी  औरत  पर होश है किसे
महिला - दिवस  मना  के  बढ़ाती है जिन्दगी

किरदार  चौथे - खम्भे का  हाथी के दाँत सा
क्यों असलियत छुपा के दिखाती है जिन्दगी

देखो  सुमन  की  खुदकुशी टूटा जो डाल से
रंगीनियाँ  कागज  की  सजाती  है  जिन्दगी

36 comments:

Unknown said...

zindgi k anek rang aur dhang ko ek sootra me baandh kar aapne badi sundar rachna ki.....
badhaai !

मुकेश कुमार तिवारी said...

श्यामल जी,

क्या फर्क रहनुमा और कातिल में है यारो।
हो सामने दोनों तो लजाती है जिन्दगी।।

बहुत खूब शेर कहा है, जिन्दगी की नंगी सच्चाईयों को सामने लाता हुआ।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

Prem Farukhabadi said...

क्या फर्क रहनुमा और कातिल में है यारो।
हो सामने दोनों तो लजाती है जिन्दगी।।

bahut sundar baat kahi aapne.

Nikhil said...

www.baithak.hindyugm.com

निखिल आनंद गिरि

admin said...

जिंदगी की तरह तमाम भावनाओं से लबरेज यह गजल है। बधाई।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Sajal Ehsaas said...

गिनती में सिमटी औरत पर होश है किसे।
महिला दिवस मना के बढ़ाती है जिन्दगी।।

gazab hai...

vandana gupta said...

har sher gazab ka hai.......zindagi ki sachchaiyon se avgat karata hua.

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) said...

नमस्कार श्यामल जी मैं क्या कमेन्ट करू मैं अपने आप को उस स्थिति में नहीं पता जो आप की रचनाओ पर कमेन्ट करूँ सायद इसी लिए अब तक कोई कमेन्ट नहीं किया इस ब्लॉग जगत में कुछ लोग यैसे है जिनकी रचनाये हमेशा नया जोश भरती है इन लो गो में आप और निर्मल कपिला जी को मैं मन ही मन अपना गुरु मान बैठा हूँ अत एक बार फिर नत मस्तक हूँ सच्चाई को प्रद्सित करती एक अमूल्य रचना
वोट अपनी लाठी क्यों भैंस है उनकी।
क्या चाल सियासत की पढ़ाती है जिन्दगी।।
गिनती में सिमटी औरत पर होश है किसे।
महिला दिवस मना के बढ़ाती है जिन्दगी।।

आप का ही तकिया कलाम
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084

नीरज गोस्वामी said...

लो छिन गए खिलौने बचपन भी लुट गया।
है बोझ किताबों का दबाती है जिन्दगी।।

श्यामल जी जब ग़ज़ल के सारे शेर एक से बढ़ कर एक हों ऐसे में किसी एक शेर की तारीफ करना हिमाकत होगी...बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने...आज के हालात का बेबाक वर्णन किया है...बहुत बहुत बहुत बधाई....
नीरज

ताऊ रामपुरिया said...

वाह बडी सुंदर रचना.

रामराम.

Anil Pusadkar said...

सुन्दर।

रंजना said...

गिनती में सिमटी औरत पर होश है किसे।
महिला दिवस मना के बढ़ाती है जिन्दगी।।


लाजवाब !!!!! क्या बात कही है आपने....

बेबाकी से हकीकत बयां करती ...बहुत बहुत कमाल की ग़ज़ल !! साधुवाद स्वीकारें..

ओम आर्य said...

jindgi ke anek rang hai un rango ko aapane jis sahajata se bayan kar diya hai .......kya kahun ............aapki lekhani ko salam

योगेन्द्र मौदगिल said...

Wah....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

महकेगा मन-सुमन, चहक उठेगी जिन्दगी।
लेकिन दिलों से अपने, हटाओ तो गन्दगी।।

राज भाटिय़ा said...

गिनती में सिमटी औरत पर होश है किसे।
महिला दिवस मना के बढ़ाती है जिन्दगी।।
बहुत सुंदर जी,
्धन्यवाद

श्यामल सुमन said...

सभी को है आभार जो दिया स्नेह की छाँव।
छोड़ के लेखन सात दिन रहूँगा अपने गाँव।।

हसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

शेफाली पाण्डे said...

लो छिन गए खिलौने बचपन भी लुट गया।
है बोझ किताबों का दबाती है जिन्दगी।।
gazab ka likha hai.....

शेफाली पाण्डे said...

लो छिन गए खिलौने बचपन भी लुट गया।
है बोझ किताबों का दबाती है जिन्दगी।।
gazab ka likha hai.....

Udan Tashtari said...

क्या फर्क रहनुमा और कातिल में है यारो।
हो सामने दोनों तो लजाती है जिन्दगी।।

--बहुत खूब!! बेहतरीन रचना.

Yogesh Verma Swapn said...

है वोट अपनी लाठी क्यों भैंस है उनकी।
क्या चाल सियासत की पढ़ाती है जिन्दगी।।

wah suman ji, sabhi sher lajawaab. badhaai.

Gyan Dutt Pandey said...

वाह! वाह - बहुत सुन्दर लिखा जी!

M Verma said...

क्यों भैंस है उनकी।
-
shandar rachana

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

वाह! ग़ज़ल के भाव तो अच्छे हैं। लेकिन मतले का शेर कानूनी है क्या?।

एक शेर मैं भी जोड़ता हूँ। मुलाहिजा हो...!

इन्सान बँट गया तमाम कायनात में।
टुकड़ों में इसे रोज दिखाती है जिन्दगी॥

Mumukshh Ki Rachanain said...

तार-तार होती जिन्दगी के सभी राज परोस दिए आपने अपनी इस प्यारी से - नाजुक सी, लजाती सी, शरमाई सी जीवंत ग़ज़ल में.

बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त

दिगम्बर नासवा said...

गिनती में सिमटी औरत पर होश है किसे।
महिला दिवस मना के बढ़ाती है जिन्दगी।।

वाह...... कमाल का कहा है सुमन जी.......पूरी ग़ज़ल नए एहसास से भरी है

nidhi said...

लो छिन गए खिलौने बचपन भी लुट गया।
है बोझ किताबों का दबाती है जिन्दगी।। ...bahut sundar bhaav hain.

निर्मला कपिला said...

श्यामलजी माफी चाहती हूँ पता नहीं कैसे ये खूबसूरत रचना मुझ से देखे बिन रह गयी फिर भी भाग्यशाली हूँ कि देर आये दुरुस्त आये
क्या फर्क रहनुमा और कातिल में है यारो।
हो सामने दोनों तो लजाती है जिन्दगी।।
अद्भुत बेहतरीन बधाई

निर्मला कपिला said...

श्यामलजी माफी चाहती हूँ पता नहीं कैसे ये खूबसूरत रचना मुझ से देखे बिन रह गयी फिर भी भाग्यशाली हूँ कि देर आये दुरुस्त आये
क्या फर्क रहनुमा और कातिल में है यारो।
हो सामने दोनों तो लजाती है जिन्दगी।।
अद्भुत बेहतरीन बधाई

Anonymous said...

कितना अच्छा लग रहा होगा आपको अपने गाँव जाकर ना, एक अलग ही एहसास.....देरी से आने के लिए माफ़ी चाहूंगा.....हमेशा की तरह भावपूर्ण मगर सशक्त लेखन जारी है........

साभार
हमसफ़र यादों का.......

Anonymous said...

क्या बात है...
बेहतरीन रचना...

shama said...

Sach to ye hai,ki, aapkee rachnaon pe tippanee karun...ye meree qabiliyat nahee...!

महेन्द्र मिश्र said...

बेहतरीन रचना....

hem pandey said...

'बाँटी हो जिसने तीरगी उसकी है बन्दगी।
हर रोज नयी बात सिखाती है जिन्दगी।।'

- यह अकेला शेर पूरी गजल कह रहा है.

स्वप्न मञ्जूषा said...

लो छिन गए खिलौने बचपन भी लुट गया।
है बोझ किताबों का दबाती है जिन्दगी।।
बहुत खूब!! बेहतरीन रचना
बधाई....

Unknown said...

बहुत ही बढ़िया

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