बच्चा से बस्ता है भारी।
यह भबिष्य की है तैयारी
खोया बचपन, सहज हँसी भी
क्या बच्चे की है लाचारी
भाषा, पहले के आका की
पढ़ने की है मारामारी
भारत जब से बना इन्डिया
हिन्दी लगती है बेचारी
टूटा सा घर देख रहे हो
वह विद्यालय है सरकारी
ज्ञान, दान के बदले बेचे
शिक्षक लगता है व्यापारी
छीन रहा जो अधिकारों को
क्यों कहलाता है अधिकारी
मंदिर,मस्जिद और संसद में
भरे पड़े हैं भ्रष्टाचारी
है विकास की यह उड़ान भी
घर घर छायी है बेकारी
सुमन पढ़ा जनहित की बातें
कभी कहो ना है अखबारी
Thursday, July 30, 2009
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25 comments:
बहुत सुंदर रचना लिखा है आपने! हर एक पंक्तियाँ सच्चाई बयान करती है और आपकी रचना पड़कर तो मैं अपने स्कूल के दिनों में लौट गई जब किताबों से भरा भारी बैग लिए झुककर स्कूल जाती थी! इस बेहतरीन रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
सही शाब्द चित्र खींचा है भाई.
बिलकुल सही
बहुत यथार्थ परक रचना है,बधाई.
सही लिखा .. सुंदर लिखा !!
हुआ है विकसित देश हमारा
घर घर छायी है बेकारी
bahut hi sundar ,waah!
मेरा बस्ता कितना भारी।
बोझ उठाना है लाचारी।।
मेरा तो नन्हा सा मन है।
छोटी बुद्धि दुर्बल तन है।।
पढ़नी पड़ती सारी पुस्तक।
थक जाता है मेरा मस्तक।।
रोज-रोज विद्यालय जाना।
बड़ा कठिन है भार उठाना।।
ज्ञान, दान के बदले बेचे
शिक्षक लगता है व्यापारी
छीन रहा जो अधिकारों को
क्यों कहलाता है अधिकारी
आज के समाज के चेहरे का सटीक चित्रण किया है बहुत बहुत बधाई
badhiya vyang..parantu bhav se bhara kavita..aaj kal bachchon ko itane dher sare pustake padhayi jati hai ki bechara bas paas hone me hi duba rahata hai..
jnyan arjit karana jo shiksha ka mool uddeshya hai wo tp bahut piche hota ja raha hai..
sundar vichar aur kavita..badhayi.
आप ने शब्द चित्र का अच्छा खाका खीचा है आप ने ।
बहुत अच्छी रचना है
भावनाओं का उज्जवल चित्रण......
हिंदी की यही स्थिति रह गई है
bahut hi behatarin tarike se rakhi hai aapane aapan bhaw jisame jiwan me yahi sab kuchh to ho raha hai ......badhaee
टूटा सा घर देख रहे हो
वह विद्यालय है सरकारी
ज्ञान, दान के बदले बेचे
शिक्षक लगता है व्यापारी
क्या बात है भईया.... एक एक शेर मोती है , वास्तविकता को एकदम उजागर करती है आपकी कविता ... देश में शिक्षा की यही बदहाली है बहुत ही बढ़िया....आपकी कलम को प्रमाण...
श्यामल जी,
वर्तमान के हालातों को सच्चाई से बयाँ करती हुई एक प्रश्न भी उठाती है कि इस व्यव्स्था को हमने स्वीकार कर लिया है? या हमारी भी जिम्मेवारी भी बनती है कम-अज-कम विरोध तो कर ही सकें फिर वो आवाज़ उनके कानों तक पहुँचे या नही।
सार्थक लेखन, साधुवाद।
टूटा सा घर देख रहे हो
वह विद्यालय है सरकारी
बहुत खूब सभी शब्द चित्र बहुत अच्छे
har shabd yatharthbodh karata hua .
बहुत सुन्दर शब्द चित्र खीचा है।
सतत सनेह जो मिला आपका
सुमन हृदय से है आभारी
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
वाह , सुन्दर ... अति सुन्दर |
सुमनजी,
हर पंक्ति शानदार ! आज के हालात पर पैनी नज़र, गहरा कटाक्ष ! लेकिन इस छोटी-सी पंक्ति पे निहाल होने को जी चाहता है--'छीन रहा जो अधिकारों को, क्यों कहलाता है अधिकारी ?'
भारत को इन्डिया जब कहते
हिन्दी लगती है बेचारी ।
सही कह रहे हैं यथार्थ को शब्दांकित कर दिया ।
आज स्कूलों मैं बस्ता भारी एक बड़ी समस्या है | कोई समाधान की बात ही नहीं करता |
बेहतरीन रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
यह जानकर बेहद ख़ुशी हुई कि आप भी बच्चों का ख़्याल रखते हैं!
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ओंठों पर मधु-मुस्कान खिलाती, कोहरे में भोर हुई!
नए वर्ष की नई सुबह में, महके हृदय तुम्हारा!
संयुक्ताक्षर "श्रृ" सही है या "शृ", मिलत, खिलत, लजियात ... ... .
संपादक : सरस पायस
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