ये सच कि मनमीत मिला है
दूरी फिर भी यही गिला है
कुछ न पाया देकर सब कुछ
मेरे प्यार का यही सिला है
रहता हरदम इन्तजार में
नहीं अभीतक धैर्य हिला है
काँटे क्यों हैं फूल बाग में
शायद काँटा कुसुम-किला है
दृढ़ता से विश्वास मिलन का
इसी आस में सुमन खिला है
Friday, July 8, 2011
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रचना में विस्तार
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अन्ध-भक्ति है रोग
छुआछूत से कब हुआ, देश अपन ये मुक्त? जाति - भेद पहले बहुत, अब VIP युक्त।। धर्म सदा कर्तव्य ह...
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गन्दा फिर तालाब
क्या लेखन व्यापार है, भला रहे क्यों चीख? रोग छपासी इस कदर, गिरकर माँगे भीख।। झट से झु...
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मगर बेचना मत खुद्दारी
यूँ तो सबको है दुश्वारी एक तरफ मगर बेचना मत खुद्दारी एक तरफ जाति - धरम में बाँट रहे जो लोगों को वो करते सचमुच गद्दारी एक तरफ अक्सर लो...
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लेकिन बात कहाँ कम करते
मैं - मैं पहले अब हम करते लेकिन बात कहाँ कम करते गंगा - गंगा पहले अब तो गंगा, यमुना, जमजम करते विफल परीक्षा या दुर्घटना किसने देखा वो...
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8 comments:
"कुछ न पाया देकर सब कुछ
मेरे प्यार का यही सिला है"
भाव पूर्ण रचना आपने मन के भावों को बहुत ही सहज सरल भाषा में लिख डाला है.
काँटे क्यों हैं फूल बाग में
शायद काँटा कुसुम-किला है
सुन्दर भाव से सजी अच्छी गज़ल
बहुत ही भावपूर रचना...
कुछ न पाया देकर सब कुछ
मेरे प्यार का यही सिला है..
बहुत खूब ..इसी तरह बगियाँ ,मै सुमन खिलाते रहे ..
रहता हरदम इन्तजार में
नहीं अभीतक धैर्य हिला है ...
बहुत लाजवाब ... कार सभी में इतना धैर्य आ जाए की हिले नहीं ...
saral sahaz rachna.
आस में आप यूँ ही खिलते रहें।
शिकवा रात का -क्यों चुराए सितारे सवेरा हँसा
सवेरा थोड़ी देर रुक जा अरमानो को पूरा होने दे
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