Wednesday, August 17, 2011

लोकतंत्र सचमुच बीमार

अपना गीत - अपना स्वर

कृपया वीडियो को क्लिक करके सुने - नीचे इसी गीत के बोल भी हैं




राष्ट्र-गान आये ना जिनको, वो संसद के पहरेदार।
भारतवासी अब तो चेतो, लोकतंत्र सचमुच बीमार।।

कहने को जनता का शासन, लेकिन जनता दूर बहुत।
रोटी - पानी खातिर तन को, बेच रहे मजबूर बहुत।
फिर कैसे उस गोत्र - मूल के, लोग ही संसद जाते हैं,
हर चुनाव में नम्र भाव, फिर दिखते हैं मगरूर बहुत।।
प्रजातंत्र मूर्खों का शासन, कथन हुआ बिल्कुल साकार।
भारतवासी अब तो चेतो, लोकतंत्र सचमुच बीमार।।

बहुत शान से यहाँ लुटेरे, "बड़े लोग" कहलाते हैं।
मिहनतकश को नीति-वचन और वादों से सहलाते हैं।
वो अभाव में अक्सर जीते, जिनके हैं ईमान बचे,
इधर घोषणा बस कागज में, बेबस को बहलाते हैं।।
परिवर्तन लाजिम है लेकिन, शेष क्रांति का बस आधार।
भारतवासी अब तो चेतो, लोकतंत्र सचमुच बीमार।।

वीर-शहीदों की आशाएँ, कहो आज क्या बच पाई?
बहुत कठिन है जीवन-पथ पर, धारण करना सच्चाई।
मन - दर्पण में अपना चेहरा, रोज आचरण भी देखो,
निश्चित धीरे-धीरे विकसित, होगी खुद की अच्छाई।।
तब दृढ़ता से हो पायेगा, सभी बुराई का प्रतिकार।
भारतवासी अब तो चेतो, लोकतंत्र सचमुच बीमार।।

कर्तव्यों का बोध नहीं है, बस माँगे अपना अधिकार।
सुमन सभी संकल्प करो कि, नहीं सहेंगे अत्याचार।।
तब ही सम्भव हो पायेगा, भारत का फिर से उद्धार।
अपने संग भावी पीढ़ी पर, हो सकता है इक उपकार।।

7 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

देश सुदृढ़ हो।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आज के सन्दर्भ में बहुत अच्छी प्रस्तुति

vandana gupta said...

्बिल्कुल सही कहा।

SACCHAI said...

" sahi alfaz ... aap se sahemat hu mai "

waqt milne par yahan padhare

" अकल के मोटे ..दिमाग के लोटे : पप्पू धमाल (व्यंग)
http://eksacchai.blogspot.com/2011/08/blog-post_18.html

गुड्डोदादी said...

श्यामल जी
चिरंजीव भवः
परिवर्तन लाजिम है लेकिन, शेष क्रांति का बस
आधार।
भारतवासी अब तो चेतो, लोकतंत्र सचमुच बीमार।।


अपनी चेतना की दीया जलाओ-
आत्म सम्मान का तिरंगा लहराओ-

अद्धभुत

सु-मन (Suman Kapoor) said...

sundar..

Unknown said...

तुम्हारे पाँवोँ के नीचे कोई जमीन नहीँ,कमाल ये है कि फिर भी तुम्हेँ यकिन नहीँ ।
मै बेपनाह अँधेरोँ को सुबह कैसे कहूँ, मै इन नजारोँ का अंधा तमाशबीन नहीँ ।
तुम्हीँ से प्यार जताये तुम्हीँ को खा जायेँ,अदीब योँ तो सियासी हैँ पर कमीन नहीँ ।

आज के दौर मेँ बिल्कुल प्रासंगिक, बहुत सुंदर रचना ।

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