मिहनत जो करते दिन-रात
वो दुख में रहते दिन-रात
सुख देते सबको निज-श्रम से
तिल-तिल कर मरते दिन-रात
मिले पथिक को छाया हरदम
पेड़, धूप सहते दिन-रात
बाहर से भी अधिक शोर क्यों
भीतर में सुनते दिन-रात
दूजे की चर्चा में अक्सर
अपनी ही कहते दिन-रात
हृदय वही परिभाषित होता
प्रेम जहाँ बसते दिन-रात
मगर चमन का हाल तो देखो
सुमन यहाँ जलते दिन-रात
वो दुख में रहते दिन-रात
सुख देते सबको निज-श्रम से
तिल-तिल कर मरते दिन-रात
मिले पथिक को छाया हरदम
पेड़, धूप सहते दिन-रात
बाहर से भी अधिक शोर क्यों
भीतर में सुनते दिन-रात
दूजे की चर्चा में अक्सर
अपनी ही कहते दिन-रात
हृदय वही परिभाषित होता
प्रेम जहाँ बसते दिन-रात
मगर चमन का हाल तो देखो
सुमन यहाँ जलते दिन-रात
16 comments:
बहुत सुंदर विचार और उत्कृष्ट प्रस्तुति ...!!
श्यामल
आशीर्वाद
बाहर से भी अधिक शोर क्यों
भीतर में सुनते दिन-रात
बहुत ही मार्मिक
तेरा दर्द न जाने कोए
तू भीतर भीतर रोये
बाहर से भी अधिक शोर क्यों
भीतर में सुनते दिन-रात
दूजे की चर्चा में अक्सर
अपनी ही कहते दिन-रात
Bahut khoob!
Kabhi mere blogpe bhee aayen! Achha lagega!
वाह वाह वाह …………शानदार रचना मन मे उतर गयी।
वाह वाह...........
बाहर से भी अधिक शोर क्यों
भीतर में सुनते दिन-रात
बेहतरीन......
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
घूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच ।
लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर लगाई गई है!
कल शनिवार 25/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सुन्दर रचना ,
बधाई ,
सादर
स्वयं जल कर औरों को रोशनी देते अच्छे लोग..
बहूत हि सुंदर
प्रभावशाली हा अभिव्यक्ती...
गहन अभिवयक्ति......
हृदय वही परिभाषित होता
प्रेम जहाँ बसते दिन-रात.....
जहाँ प्रेम बसता....वहीँ जग का हर दिल रमता...
हृदय वही परिभाषित होता
प्रेम जहाँ बसते दिन-रात...
इस प्रेम पाती की हैं अनोखी
जिस बिन दुनिया हैं अधूरी ...अनु
sunder bhavon se saji rachna
badhai
rachana
आँखों का नशा ही और है
इनमे तेरी सूरत बसी है
चारों ओर शोर ही शोर है
पहले था अब नहीं नोर है
तेरी ही यादों में सोया हूँ प्रिय
मोतिये का फूल मार् के जगा देना
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