मजबूरी का नाम न लो
मजबूरों से काम न लो
वक्त का पहिया घूम रहा है
व्यर्थ कोई इल्जाम न लो
धर्म, जगत - श्रृंगार है
पर कुछ का व्यापार है
धर्म सामने पर पीछे में
मचा हुआ व्यभिचार है
क्या जीना आसान है
नीति नियम भगवान है
न्याय कहाँ नैसर्गिक मिलता
भ्रष्टों का उत्थान है
रामायण की बात करो
भाई से प्रतिघात करो
रिश्ते सारे टूट रहे क्यों
कारण भी तो ज्ञात करो
सुमन सभी संजोगी हैं
कहते मगर वियोगी हैं
हृदय-भाव की गहराई में
घने स्वार्थ के रोगी हैं
मजबूरों से काम न लो
वक्त का पहिया घूम रहा है
व्यर्थ कोई इल्जाम न लो
धर्म, जगत - श्रृंगार है
पर कुछ का व्यापार है
धर्म सामने पर पीछे में
मचा हुआ व्यभिचार है
क्या जीना आसान है
नीति नियम भगवान है
न्याय कहाँ नैसर्गिक मिलता
भ्रष्टों का उत्थान है
रामायण की बात करो
भाई से प्रतिघात करो
रिश्ते सारे टूट रहे क्यों
कारण भी तो ज्ञात करो
सुमन सभी संजोगी हैं
कहते मगर वियोगी हैं
हृदय-भाव की गहराई में
घने स्वार्थ के रोगी हैं
10 comments:
सटीक निष्कर्ष
सुमन सभी संजोगी हैं
कहते मगर वियोगी हैं
हृदय-भाव की गहराई में
घने स्वार्थ के रोगी हैं
घर ढहने के कारण सारे ज्ञात रहे,
फिर भी मन में क्यों कालापन व्याप्त रहे।
श्यामल
आशीर्वाद
न्याय कहाँ नैसर्गिक मिलता
भ्रष्टों का उत्थान है
बहुत ही विहल भाव
कौन अपना कौन पराया
क्यों नहीं कोई समझ पाया
मातपिता का करना क्या है
केवल उनका धन ढूंढो
क्या करना रिश्ते नातों का
उनके धन पर मौज करो ....
शुभकामनायें आपको !
हृदय-भाव की गहराई में
घने स्वार्थ के रोगी हैं
मां बाप का जो हक था वो निभा ना सका
बेटा बहू के पल्लू से बाहर ना आ सका
बेटे के जनम दिन पर लाया है वो कार
जो बूढ़े बाप का चश्मा ना ला सका( पंक्तियों का अनुसरण)
बहुत सुन्दर वाह!
आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
बहुत बढ़िया रचना
स्पंदित करती संवेदनशील रचना ,,,, शुभकामनायें जी /
कलियुग के सारे दुष्प्रभाव दिखने लगे हैं साफ़-साफ़..
very good one
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