Saturday, April 7, 2012

भाई से प्रतिघात करो

मजबूरी का नाम न लो
मजबूरों से काम न लो
वक्त का पहिया घूम रहा है
व्यर्थ कोई इल्जाम न लो

धर्म, जगत - श्रृंगार है
पर कुछ का व्यापार है
धर्म सामने पर पीछे में
मचा हुआ व्यभिचार है

क्या जीना आसान है
नीति नियम भगवान है
न्याय कहाँ नैसर्गिक मिलता
भ्रष्टों का उत्थान है

रामायण की बात करो
भाई से प्रतिघात करो
रिश्ते सारे टूट रहे क्यों
कारण भी तो ज्ञात करो

सुमन सभी संजोगी हैं
कहते मगर वियोगी हैं
हृदय-भाव की गहराई में
घने स्वार्थ के रोगी हैं

10 comments:

सुज्ञ said...

सटीक निष्कर्ष

सुमन सभी संजोगी हैं
कहते मगर वियोगी हैं
हृदय-भाव की गहराई में
घने स्वार्थ के रोगी हैं

प्रवीण पाण्डेय said...

घर ढहने के कारण सारे ज्ञात रहे,
फिर भी मन में क्यों कालापन व्याप्त रहे।

गुड्डोदादी said...

श्यामल
आशीर्वाद
न्याय कहाँ नैसर्गिक मिलता
भ्रष्टों का उत्थान है

बहुत ही विहल भाव
कौन अपना कौन पराया
क्यों नहीं कोई समझ पाया

Satish Saxena said...

मातपिता का करना क्या है
केवल उनका धन ढूंढो
क्या करना रिश्ते नातों का
उनके धन पर मौज करो ....


शुभकामनायें आपको !

गुड्डोदादी said...

हृदय-भाव की गहराई में
घने स्वार्थ के रोगी हैं


मां बाप का जो हक था वो निभा ना सका
बेटा बहू के पल्लू से बाहर ना आ सका
बेटे के जनम दिन पर लाया है वो कार
जो बूढ़े बाप का चश्मा ना ला सका( पंक्तियों का अनुसरण)

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

बहुत सुन्दर वाह!
आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

Gyan Darpan said...

बहुत बढ़िया रचना

udaya veer singh said...

स्पंदित करती संवेदनशील रचना ,,,, शुभकामनायें जी /

Pratik Maheshwari said...

कलियुग के सारे दुष्प्रभाव दिखने लगे हैं साफ़-साफ़..

Jitendra Indave said...

very good one

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