Saturday, January 11, 2014

प्रेम नहीं मजबूर

सुमन प्रेम की राह में, काँटे बिछे अनेक।
दर्द हजारों का मिले, चुभ जाता जब एक।।

त्याग प्रेम का मूल है, प्रियतम का सम्मान।
करते हँस हँस के कई, अपना जीवन-दान।।

प्रेम गली में क्यों सदा, खड़ी मिले दीवार।
सदियों से देखा यही, दुनिया का व्यवहार।।

भीतर चाहत प्रेम की, बाहर करे विरोध।
अगणित ऐसे लोग हैं, अक्सर होता बोध।।

जाति-धरम या उम्र से, प्रेम नहीं मजबूर।
भाव जहाँ मिलते स्वतः, प्रेम वहीं मंजूर।।

धन सारे घटते रहे, अगर बाँटते लोग।
ज्ञान, प्रेम का धन बढ़े, लुटा, लगा ले रोग।।

प्रेम जहाँ सचमुच मिले, वहाँ भला क्यों देर।
ये दुनिया की रीति है, कब कर दे अन्धेर।।

5 comments:

balman said...

प्रेम के सभी पक्षों की सराहनीय प्रस्तुती.

Misra Raahul said...

काफी उम्दा प्रस्तुति.....
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (12-01-2014) को "वो 18 किमी का सफर...रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1490" पर भी रहेगी...!!!
- मिश्रा राहुल

Nayanjabalpuri said...

प्रेम पर सभी दोहे भावपूर्ण एवं समयानुकूल है .

कबीर ने भी कहा है --- चढ़े तो चाखे प्रेम रस गिरे तो चकनाचूर .

Nayanjabalpuri said...

प्रेम पर सभी दोहे भावपूर्ण एवं समयानुकूल है .

कबीर ने भी कहा है --- चढ़े तो चाखे प्रेम रस गिरे तो चकनाचूर .

कालीपद "प्रसाद" said...

प्रेम पर बहुत सुन्दर दोहे !
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