Sunday, September 14, 2014

चेहरे पर ही धूल है

वे खोजे महबूब चाँद में हाल जहाँ माकूल है 
रोटी में जो चाँद निहारे क्या भूखों की भूल है

लोग सराहे जाते वैसे जनहित में जो खड़े अभी
अगर साथ चलना तो कहते, रस्ते बहुत बबूल है

अपने अपने तर्क सभी के खुद की गलती छुप जाए
गलती को आदर्श बनाकर कहते यही उसूल है

सूरत कैसी अपनी यारो देख नहीं पाया अबतक
समझ न पाया दर्पण पे या चेहरे पर ही धूल है

माँ की ममता का बँटवारा सन्तानों में सम्भव क्या
कहीं पे रौनक कहीं उदासी, कैसा नियम रसूल है

किसी के कंधे अर्थी देखो दूजे पर दिखती डोली
रो कर लोग विदा करते पर दोनों पर ही फूल है

संघर्षों में चलता जीवन सोच समझकर चला करो
शायद सुमन कहीं मिल जाए बाकी सब तिरशूल है

6 comments:

अजय कुमार झा said...

रोटी में जो चांद निहारे क्या भूखे की भूल है ...अदभुत अदभुत श्यामल भाय ...जारी राखल जाउ ..उम्दा बहुत उम्दा

आशीष अवस्थी said...

बढ़िया व सुंदर रचना , धन्यवाद !
I.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )

Rohitas Ghorela said...

उम्दा रचना
पुराने भावों को एक नये अंदाज में पेश किया है

Unknown said...

Bahut hi shaandar likha hai aapne.... Badhaayi!!

श्यामल सुमन said...

आपकी सराहना मूल्यवान है मेरे लिए - हार्दिक धन्यवाद Yashoda Agrawal जी Ajay Kumar Jha जी Ashish Bhai जी Ravikar जी Rohitas जी Lekhika जी

विनोद कुमार पांडेय said...

आप की रचनाओं का एक बड़ा प्रसंशक हूँ । हर बार की तरह इस बार भी लाजवाब । सुन्दर रचना के लिए साधुवाद । नमस्कार

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