Tuesday, September 8, 2015

शब्द-शब्द बलवान मुसाफिर

सबको  सबसे  आस मुसाफिर
इक दो खासमखास मुसाफिर
कहते   अक्सर  लोग  उसी  ने
तोड़ा   है   विश्वास   मुसाफिर
                                                
          शब्द-शब्द बलवान मुसाफिर
         यही  मान  अपमान मुसाफिर
         बाँटो  जितना   बढ़  जाता  है 
         दान  करो नित ज्ञान मुसाफिर

सब  करते  हैं काज  मुसाफिर
कुछ क्यों भूखे आज मुसाफिर
शासन  भी अपना  दशकों से
तब  आती  है  लाज  मुसाफिर
                                               
         नित खुद को पहचान मुसाफिर
         अपनी  कीमत जान  मुसाफिर
         सबकी  खातिर आदर  लेकिन
         कर खुद का सम्मान मुसाफिर

जब आपस में बात मुसाफिर
जगते  हैं   जज्बात  मुसाफिर
साथ  सुजन  तो वन में जी लूँ
काली   चाहे  रात   मुसाफिर
                                                
          भटके चारों धाम मुसाफिर
          संतों को परनाम मुसाफिर
          दुख होता जब कोई बनते
          जग में आसाराम मुसाफिर

क्यों  करते  हो पाप मुसाफिर
छोड़ो  अपनी  छाप मुसाफिर
उलट - पुलट  करने से जीवन
बने सुमन अभिशाप मुसाफिर

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (10-09-2015) को "हारे को हरिनाम" (चर्चा अंक-2094) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Unknown said...

बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी बेह्तरीन अभिव्यक्ति !शुभकामनायें.


बीती उम्र कुछ इस तरह कि खुद से हम न मिल सके
जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अंजान है

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत बढ़िया

हाल की कुछ रचनाओं को नीचे बॉक्स के लिंक को क्लिक कर पढ़ सकते हैं -
विश्व की महान कलाकृतियाँ- पुन: पधारें। नमस्कार!!!