Wednesday, February 3, 2016

प्रिय सँग जीने दे अभी

बदल रहा तारीख सँग, आपस का सहयोग।
पत्थर का युग था कभी, अब पत्थर से लोग।।

विकसित इतने हो रहे, बदल रहे हम आप।
भाव सुकोमल लुप्त है, छूट रहे माँ बाप।।

व्यस्त सभी हैं इस तरह, किसे सुनायें पीड़।
लोग अकेले हो रहे, बढ़ती जितनी भीड़।।

प्रिय सँग जीने दे अभी, जीवन जबतक हाथ।
पल गुजरेगा ऐ खुदा, मर कर तेरे साथ।।

लाश तैरती देखकर, सोचा इक दिन यार।
क्यों जिन्दा में डूबते, केवल साँसें भार।।

खेल खिलौना जिन्दगी, आज हुआ अनमेल।
छोड़ खिलौना है शुरु, जज्बातों का खेल।।

आगे बढना तब कठिन, अगर पैर में मोच।
पीछे रहता वो सुमन, जिसकी लँगड़ी सोच।।

No comments:

हाल की कुछ रचनाओं को नीचे बॉक्स के लिंक को क्लिक कर पढ़ सकते हैं -
रचना में विस्तार
साहित्यिक  बाजार  में, अलग  अलग  हैं संत। जिनको  आता  कुछ  नहीं, बनते अभी महंत।। साहित्यिक   मैदान   म...
अन्ध-भक्ति है रोग
छुआछूत  से  कब  हुआ, देश अपन ये मुक्त?  जाति - भेद  पहले  बहुत, अब  VIP  युक्त।। धर्म  सदा  कर्तव्य  ह...
गन्दा फिर तालाब
क्या  लेखन  व्यापार  है, भला  रहे  क्यों चीख? रोग  छपासी  इस  कदर, गिरकर  माँगे  भीख।। झट  से  झु...
मगर बेचना मत खुद्दारी
यूँ तो सबको है दुश्वारी एक तरफ  मगर बेचना मत खुद्दारी एक तरफ  जाति - धरम में बाँट रहे जो लोगों को  वो करते सचमुच गद्दारी एक तरफ  अक्सर लो...
लेकिन बात कहाँ कम करते
मैं - मैं पहले अब हम करते  लेकिन बात कहाँ कम करते  गंगा - गंगा पहले अब तो  गंगा, यमुना, जमजम करते  विफल परीक्षा या दुर्घटना किसने देखा वो...
विश्व की महान कलाकृतियाँ- पुन: पधारें। नमस्कार!!!