Friday, June 17, 2016

लौट सके मुस्कान जी

चाहत है ऐसी दुनिया की सब हो एक समान जी
कब समझेंगे इक दूजे को अपने सा इन्सान जी

कहते, पढते, सुनते रहते हम सब भाई भाई
मगर चमन के अमन में किसने जब तब आग लगाई
आओ मिलके कर लें हम सब उनकी भी पहचान जी
कब समझेंगे इक दूजे को अपने सा इन्सान जी

बदल रहे हर युग में शासक पर जनता का हाल वही
जो सबकी रोटी उपजाए अक्सर हैं कंगाल वही
कोशिश है कि उन चेहरों की लौट सके मुस्कान जी
कब समझेंगे इक दूजे को अपने सा इन्सान जी

बेहतर से बेहतर दुनिया की ख्वाब हमारे दिल में
सबको आदर मिले बराबर सभी जगह महफिल में
मुमकिन है तब सभी सुमन को मिल पाए सम्मान जी
कब समझेंगे इक दूजे को अपने सा इन्सान जी

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (20-06-2016) को "मौसम नैनीताल का" (चर्चा अंक-2379) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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