देगा कौन धकेल प्रिये
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एक तरफ मौजा ही मौजा, एक तरफ है जेल प्रिये
बात नहीं बिल्कुलअचरज की, ये सरकारी खेल प्रिये
दशकों से है रीति पुरानी, लूटे शासक जनता को
नहीं सवारी आम - लोग को, नेता घर तक रेल प्रिये
पहले धाक अलग अफसर का, नेता, मंत्री तक पर था
अब तो अफसर हैं गुलाम-सा, गायब आज नकेल प्रिये
गठबन्धन होते चुनाव में, मगर सभी दल डर में हैं
गद्दी खातिर पहले किसको, देगा कौन धकेल प्रिये
सजग लोग होते कम लेकिन, जंग हमेशा जारी है
सत्ता - सुख पहले पाने को, मची है रेलमपेल प्रिये
शासन की मनमानी से अब, सभी तंत्र पंगु दिखते
और मीडिया अब सरकारी, खबरें ठेलमठेल प्रिये
लड़नेवाले लड़ते हरदम, देख हाल मत घबराओ
मानवता जीतेगी निश्चित, सुमन किया कब फेल प्रिये
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