इक दुनिया बाहर सुमन, अन्तर्मन में एक।
रौशन बाहर दीप से, अन्तर करे विवेक।।
अंधकार में दीप का, बढ़ जाता है मान।
अन्तर्मन में झाँक लो, हो खुद की पहचान।।
दीप जले कितने, कहाँ, साधन है आधार।
तमसो मा ज्योतिर्गमय, मन से उठे पुकार।।
बाहर, अन्तर-जगत में, होता नित संघर्ष।
अन्तर अगर प्रकाश तो, जीवन का उत्कर्ष।।
अंधकार, अज्ञान को, सदा मिटाये दीप।
मोती अन्तर में छुपा, बाहर खोजे सीप।।
केवल धन देता नहीं, खुशियों का संसार।
भौतिकता श्रृंगार तो, जीवन एक विचार।।
हर आँगन में दीप हो, परम्परा का मूल।
यही भाव अन्तर जगे, दूर तभी हर भूल।।
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