हे पार्थ!
आज कल मैं ही हूँ प्रधान,
तुम राजा कह लो या सुल्तान,
या फिर समझ लो मुझे संविधान,
क्योंकि सारी न्याय व्यवस्था,
सारे तंत्र, मुझमें ही तो समाहित है।
जनता से मेरा हित और
मुझसे ही जनता का हित है।।
हे पार्थ!
सारा ब्रह्माण्ड, सारे पर्वत,
जमीन और समन्दर,
सब कुछ तो है मेरे ही अन्दर,
दुनिया के सारे सुख-दुख,
सब मेरे ही कारण है।
फिर किसी प्राकृतिक आपदा के चलते,
तेरा विरोध, या तेरी चिन्ता,
बिल्कुल अकारण है।
तुम व्यर्थ की बातों में बिना उलझे,
"कर्मण्येवाधिकारस्ते" के बारे में सोच
और "मा फलेषु कदाचन:" के मार्ग पर बढ़ो।
दूसरे की चिन्ता का त्याग करके
भौतिक सुख के शिखरों पर चढ़ो।।
हे पार्थ!
अब अगर तुझे कुछ कहना है तो कहो,
वरना एक सच्चे शरणागत की तरह,
विनम्र भाव से मेरी शरण को गहो।
सोच मत!
गाण्डीव उठा, और कर
अपने वाणों से,
समस्त विपक्षी माया को जर्जर।
हरहाल में तुझे बनना है आत्मनिर्भर।
फिर सारे सुख-दुख तेरे अपने होंगे,
जिसमें दुख सम्मुख और सुख के सपने होंगे।
इसके लिए तब सिर्फ
तुम्हें ठहराया जायेगा जिम्मेवार।
आखिर तुमने ही किया है
मेरी शरण में आना,
ख़ुशी ख़ुशी स्वीकार।।
हे पार्थ!
मेरा क्या? मैं तो हूँ मोह माया से दूर,
जब अवसर मिला, सुख उठाया भरपूर,
जिसने सर उठाया उसे किया मजबूर।
लेकिन अब झोला उठाकर यहाँ से,
मेरे जाने का समय आ रहा है।
कोई मुझे हिमालय पर बुला रहा है।
मैं कल्कि अवतार और
ब्रह्माण्ड मे हूँ सतत, निर्जर,
तू अपनी कामना का अंत कर,
और झटपट बन जा आत्मनिर्भर।।
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