मानव के जीवन में देखो, कैसा पतझड़ आया है
अपनों से अपने बेगाने, ऐसा इक डर आया है
भूल गए हैं गिनती तक भी, जितने अपने छोड़ गए
आँसू का सैलाब देखकर, लगा समन्दर आया है
अमरबेल सिखलाती अक्सर, जीना है हर हाल हमें
रुग्ण व्यवस्था, आँखों में अब, खून उतर कर आया है
मानव अपनी शर्त पे जीता, भाग्य भरोसे परजीवी
हाथ मिला, आवाज लगाओ, ऐसा अवसर आया है
अपने जीवन से भी आगे, लोग सजग, वो सोचेंगे
लाएगा ऋतुराज सुमन फिर, यही सोचकर आया है
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