साथ साथ रहकर भी अक्सर
हर एक, दूसरे का रकीब है।
जिसे समझना बहुत कठिन है,
सचमुच! ये दुनिया कितनी अजीब है?
स्वार्थ है, परमार्थ है
हमारे हर काम का विशेषार्थ है।
इसे विवेचनार्थ जब सोचता हूँ
तो पाता हूँ कि प्रत्यक्षतः
स्वार्थ तो अक्सर जीवन के
साथ ही दिखता है और
परमार्थ! जीवन के बाद भी
साथ साथ टिकता है।
परमार्थ सदा सम्पन्न है
और स्वार्थ कितना गरीब है?
सचमुच! ये दुनिया कितनी अजीब है?
ज्ञान है, अज्ञान है,
हर विधा का अपना विज्ञान है,
जिस पर कुछ का ध्यान है तो
कितनों के लिए यह सिर्फ अनुमान है।
जरूरत के हिसाब से उसका
जब लेता हूँ संज्ञान तो पाता हूँ कि
ज्ञान सदा ही साथ में टिकता है
और अज्ञान! दिन रात
ज्ञान के नाम से बिकता है।
जबकि ध्यान से सोचो तो
ज्ञान और अज्ञान बिल्कुल करीब है।
सचमुच! ये दुनिया कितनी अजीब है?
धर्म है, अधर्म है,
सबका अपना अपना कर्म है
कोई कहता कुकर्म है तो
कोई, उसे ही कहता सुकर्म है।
इसके मर्म पर जब नर्म होकर
विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि
धर्म की ओट में अधर्म बिकता है
और हमारे कर्मों का फल
हमारे जीवन में साफ साफ दिखता है।
सब कहते कि हमारे कर्म से ही
बनता हम सबका नसीब है।
सचमुच! दुनिया कितनी अजीब है?
हर एक, दूसरे का रकीब है।
जिसे समझना बहुत कठिन है,
सचमुच! ये दुनिया कितनी अजीब है?
स्वार्थ है, परमार्थ है
हमारे हर काम का विशेषार्थ है।
इसे विवेचनार्थ जब सोचता हूँ
तो पाता हूँ कि प्रत्यक्षतः
स्वार्थ तो अक्सर जीवन के
साथ ही दिखता है और
परमार्थ! जीवन के बाद भी
साथ साथ टिकता है।
परमार्थ सदा सम्पन्न है
और स्वार्थ कितना गरीब है?
सचमुच! ये दुनिया कितनी अजीब है?
ज्ञान है, अज्ञान है,
हर विधा का अपना विज्ञान है,
जिस पर कुछ का ध्यान है तो
कितनों के लिए यह सिर्फ अनुमान है।
जरूरत के हिसाब से उसका
जब लेता हूँ संज्ञान तो पाता हूँ कि
ज्ञान सदा ही साथ में टिकता है
और अज्ञान! दिन रात
ज्ञान के नाम से बिकता है।
जबकि ध्यान से सोचो तो
ज्ञान और अज्ञान बिल्कुल करीब है।
सचमुच! ये दुनिया कितनी अजीब है?
धर्म है, अधर्म है,
सबका अपना अपना कर्म है
कोई कहता कुकर्म है तो
कोई, उसे ही कहता सुकर्म है।
इसके मर्म पर जब नर्म होकर
विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि
धर्म की ओट में अधर्म बिकता है
और हमारे कर्मों का फल
हमारे जीवन में साफ साफ दिखता है।
सब कहते कि हमारे कर्म से ही
बनता हम सबका नसीब है।
सचमुच! दुनिया कितनी अजीब है?
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