बचपन से ही सपन दिखाया, उन सपनों को रोज सजाया।
पूरे जब न होते सपने, बार-बार मिलकर समझाया।
सपनों के बदले अब दिन में, तारे देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।
पढ़-लिखकर जब उम्र हुई तो, अवसर हाथ नहीं आया।
अपनों से दुत्कार मिली और, उनका साथ नहीं पाया।
सपन दिखाया जो बचपन में, आँखें दिखा रहा है।
प्रतिभा को प्रभुता के आगे, झुकना सिखा रहा है।
अवसर छिन जाने पर चेहरा, अपना देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।
ग्रह-गोचर का चक्कर है यह, पंडितजी ने बतलाया।
दान-पुण्य और यज्ञ-हवन का, मर्म सभी को समझाया।
शांत नहीं होना था ग्रह को, हैं अशांत घर वाले अब।
नए फकीरों की तलाश में, सच से विमुख हुए हैं सब।
बेबस होकर घर में मंत्र का, जपना देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।
रोटी जिसको नहीं मयस्सर, क्यों सिखलाते योगासन?
सुंदर चहरे, बड़े बाल का, क्यों दिखलाते विज्ञापन?
नियम तोड़ते, वही सुमन को, क्यों सिखलाते अनुशासन?
सच में झूठ, झूठ में सच का, क्यों करते हैं प्रतिपादन?
जनहित से विपरीत ख़बर का, छपना देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।
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26 comments:
sundar rachna
रोटी जिसको नहीं मयस्सर, क्यों सिखलाते योगासन?
सुंदर चहरे, बड़े बाल का, क्यों दिखलाते हैं विज्ञापन?
बहुत सार्थक और सटीक रचना.
रामराम.
सुंदर एवं यथार्थपरक कविता....हमेशा की तरह......
रोटी जिसको नहीं मयस्सर, क्यों सिखलाते योगासन?
सुंदर चहरे, बड़े बाल का, क्यों दिखलाते हैं विज्ञापन?
आपकी ये पंक्तियाँ पढ़कर मुझे फिल्म राजू बन गया जैनटलमैन का नाना पाटेकर का ये संवाद याद हो आया.....दांत मजबूत करो, ऐसा दिखाते हैं टी वी पे. अरे यहाँ खाने को रोटी नहीं है, दांत मजबूत करके क्या चप्पल चबायेगा....
साभार
हमसफ़र यादों का.......
सुन्दर अभिव्यक्ति ..अच्छी लगी आपकी यह रचना
एक भावूक रचना, बहुत ही सुंदर भाव.
धन्यवाद
बहुत ही अच्छी रचना ।
आभार ।
श्यामल भैया,
सपनों के बदले अब दिन में, तारे देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।
मैं नहीं चाहती कि आप दिन में तारे देखें, लेकिन जहाँ तक कविता का प्रश्न है
बहुत खूब, लिखा है आपने
वैसे भी
'सपना कभी न अपना'
बहुत सारगर्भित कविता बनी है |
अनेकोअनेक बधाइयाँ
प्रतिभा को प्रभुता के आगे, झुकना सिखा रहा है।
अवसर छीन जाने पर चेहरा, अपना देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।
Bahut sunder!
लाजवाब
बाल्यकाल के सपनों की,
महपिल को रोज सजाता हू।
पूरे कभी नहीं होंगे,
मैं मन ही मन पछताता हूँ।
सुन्दर कविता के लिए बधाई।
दूसरा और तीसरा छंद बेहद पसंद आया।
बहुत अच्छी कविता......एक आग्रह है,
जून माह के कवि सम्मलेन में शामिल होने के लिए अपनी आवाज़ में अपनी रचना भेजे.....शुरू में अपना परिचय,कविता शीर्षक और हिंद-युग्म के प्रति अभिवादन शामिल करें......१८ जून अंतिम तारीख है. rasprabha@gmail.com पर भेजें
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।
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अपना हुआ न अपना फिर भी, अपना देख रहा हूँ।।
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पंडित जी सोचें जरा, दुनिया में ऐसा क्यों है? क्या दुनिया बदली नहीं जा सकती?
सुंदर रचना कविवर
suman ji bahut pyaari rachna,
sapna hua na poora............
wah. badhai.
स्नेह समर्थन मिला बहुत सबको है आभार।
यह मेरा सौभाग्य है मिले सदा ही प्यार।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
bahut hi sunder rachna hai sir
apki kuch rachnaye padhi or bhi padhne ki koshis karoongi sabhi lajavab thi .....thanks
बहुत ही सुन्दर छंद बद्ध कविता ,जितनी ताल बद्ध उतना ही आज की दुनिया से कदम ताल मिलाती हुई ,आपको इस कविता के लिए बहुत बहुत बधाई
shyamal ji bahut hee sunder steek rachna hai khaskar antim pehra man ko chho gayaa aabhaar
bahut bahut bahut achchhi rachna
सामाजिक विद्रूपताओं पर आपने पैनी नजर डाली है। बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सामाजिक विद्रूपताओं पर आपने पैनी नजर डाली है। बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
shabd-shabd kavita
anand ras ki sarita
sarita jo pyas bujhati nahin jagati hai
antarman k dwar ki ghanti bajati hai
badhai !!!!!!
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