जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता
इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलती हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता
होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता
अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता
आगे बढ़ी है दुनिया मौसम बदल रहा है
बदले सुमन का जीवन इक ऐसा पहर होता
Saturday, April 3, 2010
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22 comments:
इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता
एक दर्दनाक सच्चाई।
सुन्दर रचना।
Waise to puri ki puri ghazal hi lajawab hai par matla kamaal kar gaya...
जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता
wah...wah !
श्यामल जी
सदा सुखी रहो
जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता
वाह क्या कमाल की कड़वी सच्चाई
ऐसी ही कड़वी सच्चाई लिखते रहें
इस अच्छी गजल के लिए धन्यवाद
आशीर्वाद के साथ आपकी गुड्डोदादी
बिल्कुल सच
सुंदर रचना। आभार।
जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता
............लाजवाब पंक्तियाँ
इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता
काश यह वो आतंकवदी ओर गुंडॆ समझ सकते, जो अपने स्वार्थ के लिये यह सब करते है
सुमन जी यथार्थ रचना है।
इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता
-बहुत सही!!
अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता
क्या मर्म को छुआ है आपने
बेहतरीन
lajawab rachna suman ji...
"होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता"
bahut shashakt gazal...
बेहतरीन उम्मीदों की आस बांधती इस खूबसूरत रचना के लिए बधाई सुमन जी !
श्यामल जी
सदा सुखी रहो
इक अशियां बनाना कितना कठिन है यारों
जलती है बस्तियां फिर मजहब में जहर होता
क्या लाजवाब लिखा है सभी
मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी
मुझे रातों की स्याही से सिवा कुछ ना मिला
जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता
इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता
harek pankti lajawab hai!
अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता
bahut achhi rachna
अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता . Bahut khoob
बहुत ख़ूबसूरत भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार रचना लिखा है जो काबिले तारीफ़ है! दिल को छू गयी आपकी ये लाजवाब रचना! बधाई!
होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता
अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता
bahut hi shandar ..badhai
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता
अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता
Poori rachna yathartparak....
Bahut hi gambhir bhav pradarshit karti....... jindagi ke sachai ko udghatit karti...
जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता
जीवन सार छुपा है इन पंक्तियों में.......
सचमुच यदि कोई अपना अंत याद रख ले तो शायद ही अपने जानते कुछ गलत/बुरा करेगा..
सदैव की भांति शिक्षा देती अतिसुन्दर रचना...
अहा..इन दोनो पक्तियो मे आपने क्या खूब कहा हे...दिल को छू गई...
इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता
होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता
इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता
बेहतरीन , लाज़वाब ||
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