Saturday, April 3, 2010

सोचो तो असर होता

जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता

इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलती हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता

होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता

अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता

आगे बढ़ी है दुनिया मौसम बदल रहा है
बदले सुमन का जीवन इक ऐसा पहर होता

22 comments:

डॉ टी एस दराल said...

इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता

एक दर्दनाक सच्चाई।
सुन्दर रचना।

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

Waise to puri ki puri ghazal hi lajawab hai par matla kamaal kar gaya...
जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता

wah...wah !

गुड्डोदादी said...

श्यामल जी
सदा सुखी रहो
जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता
वाह क्या कमाल की कड़वी सच्चाई
ऐसी ही कड़वी सच्चाई लिखते रहें
इस अच्छी गजल के लिए धन्यवाद
आशीर्वाद के साथ आपकी गुड्डोदादी

प्रवीण पाण्डेय said...

बिल्कुल सच

Ashok Pandey said...

सुंदर रचना। आभार।

संजय भास्‍कर said...

जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता

............लाजवाब पंक्तियाँ

राज भाटिय़ा said...

इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता
काश यह वो आतंकवदी ओर गुंडॆ समझ सकते, जो अपने स्वार्थ के लिये यह सब करते है

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुमन जी यथार्थ रचना है।

Udan Tashtari said...

इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता


-बहुत सही!!

M VERMA said...

अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता
क्या मर्म को छुआ है आपने
बेहतरीन

अरुण चन्द्र रॉय said...

lajawab rachna suman ji...
"होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता"
bahut shashakt gazal...

Satish Saxena said...

बेहतरीन उम्मीदों की आस बांधती इस खूबसूरत रचना के लिए बधाई सुमन जी !

गुड्डोदादी said...

श्यामल जी
सदा सुखी रहो
इक अशियां बनाना कितना कठिन है यारों
जलती है बस्तियां फिर मजहब में जहर होता
क्या लाजवाब लिखा है सभी
मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी
मुझे रातों की स्याही से सिवा कुछ ना मिला

kshama said...

जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता

इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता
harek pankti lajawab hai!

रश्मि प्रभा... said...

अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता
bahut achhi rachna

प्रिया said...

अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता . Bahut khoob

Urmi said...

बहुत ख़ूबसूरत भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार रचना लिखा है जो काबिले तारीफ़ है! दिल को छू गयी आपकी ये लाजवाब रचना! बधाई!

SACCHAI said...

होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता

अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता

bahut hi shandar ..badhai

----- eksacchai { AAWAZ }

http://eksacchai.blogspot.com

कविता रावत said...

होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता

अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता
Poori rachna yathartparak....
Bahut hi gambhir bhav pradarshit karti....... jindagi ke sachai ko udghatit karti...

रंजना said...

जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता

जीवन सार छुपा है इन पंक्तियों में.......

सचमुच यदि कोई अपना अंत याद रख ले तो शायद ही अपने जानते कुछ गलत/बुरा करेगा..

सदैव की भांति शिक्षा देती अतिसुन्दर रचना...

Ashish (Ashu) said...

अहा..इन दोनो पक्तियो मे आपने क्या खूब कहा हे...दिल को छू गई...
इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता

होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता

Shayar Ashok : Assistant manager (Central Bank) said...

इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता

बेहतरीन , लाज़वाब ||

हाल की कुछ रचनाओं को नीचे बॉक्स के लिंक को क्लिक कर पढ़ सकते हैं -
विश्व की महान कलाकृतियाँ- पुन: पधारें। नमस्कार!!!