Monday, April 9, 2012

अखबारों का छपना देखा

मुस्कानों में बात कहो
चाहे दिन या रात कहो
चाल चलो शतरंजी ऐसी
शह दे कर के मात कहो

जो कहते हैं राम नहीं
उनको समझो काम नहीं
याद कहाँ भूखे लोगों को
उनका कोई नाम नहीं

अखबारों का छपना देखा
लगा भयानक सपना देखा
खबरों की इस महाभीड़ में
खबर कोई न अपना देखा

मिलते हैं भगवान् नहीं
आज नेक सुलतान नहीं
बाहर की बातों को छोडो
मैं खुद भी इंसान नहीं

अनबन से क्या मिलता है
जीवन व्यर्थ में हिलता है
भूलो दुख और खुशी समेटो
सुमन खुशी से खिलता है

10 comments:

संजय भास्‍कर said...

भावों और शब्दों का उत्कृष्ट संयोजन

सुज्ञ said...

मिलते हैं भगवान् नहीं
आज नेक सुलतान नहीं
बाहर की बातों को छोडो
मैं खुद भी इंसान नहीं

सुन्दर, आत्मनिरीक्षण जरूरी है।

ANULATA RAJ NAIR said...

वाह............................

बहुत ही बढ़िया मुक्तक.................

लाजवाब!!!!!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अनबन से क्या मिलता है
जीवन व्यर्थ में हिलता है
भूलो दुख और खुशी समेटो
सुमन खुशी से खिलता है


बहुत सुंदर और सार्थक संदेश ...अच्छी रचना

गुड्डोदादी said...

श्यामल
आशीर्वाद
विहल शब्दों से ओतप्रोत


याद कहाँ भूखे लोगों को
उनका कोई नाम नहीं

गुड्डोदादी said...

अनबन से क्या मिलता है
जीवन व्यर्थ में हिलता है

काश रूमाल से आँसू पोछ दिए होते
टूटे रिश्ते और जख्म भर गए होते

ANULATA RAJ NAIR said...

हमारी टिप्पणी खोजिये स्पाम से...

मुक्तकों की तारीफ़ व्यर्थ ना जाये....
सादर.

Brijendra Singh said...

वाह..बहुत सुंदर कविता..सच में, theory और हकीक़त के बीच की दूरी को नापना बहुत मुश्किल होता है कभी कभी..

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर, खुशी समेटने का मन बन गया है।

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

वाह! जी वाह! बहुत ख़ूब

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