उम्मीद ले के आता इक आम सबेरा
अखबार खोलने पर बदनाम सबेरा
मजबूरियाँ हैं ऐसी रातों में लोग जगते
है रात उनकी दिन में और शाम सबेरा
आंखें खुलीं हुईं हैं लेकिन जगे हैं कितने
उनके लिए ही शायद आराम सबेरा
दो वक्त कितने घर में चूल्हे भी नहीं जलते
रोटी में उनको दिखता है राम सबेरा
छीनी है जिसने खुशियाँ वो बागबाँ सुमन का
लोगों को जगाना ही नित काम सबेरा
अखबार खोलने पर बदनाम सबेरा
मजबूरियाँ हैं ऐसी रातों में लोग जगते
है रात उनकी दिन में और शाम सबेरा
आंखें खुलीं हुईं हैं लेकिन जगे हैं कितने
उनके लिए ही शायद आराम सबेरा
दो वक्त कितने घर में चूल्हे भी नहीं जलते
रोटी में उनको दिखता है राम सबेरा
छीनी है जिसने खुशियाँ वो बागबाँ सुमन का
लोगों को जगाना ही नित काम सबेरा
4 comments:
दो वक्त कितने घर में चूल्हे भी नहीं जलते
रोटी में उनको दिखता है राम सबेरा
मै भी ढूँढू उस सबेर को
जहाँ कभी ना हो अँधेरा
सवेरे की सकल दास्ताँ कह गयी पोस्ट!
कहाँ शान्ति में खोलते हैं, झन्नाटा दे देता है अखबार।
खुबसूरत अभिवयक्ति.....
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