Tuesday, August 13, 2013

बदनाम सबेरा

उम्मीद ले के आता इक आम सबेरा
अखबार खोलने पर बदनाम सबेरा

मजबूरियाँ हैं ऐसी रातों में लोग जगते
है रात उनकी दिन में और शाम सबेरा

आंखें खुलीं हुईं हैं लेकिन जगे हैं कितने
उनके लिए ही शायद आराम सबेरा

दो वक्त कितने घर में चूल्हे भी नहीं जलते
रोटी में उनको दिखता है राम सबेरा

छीनी है जिसने खुशियाँ वो बागबाँ सुमन का
लोगों को जगाना ही नित काम सबेरा

4 comments:

गुड्डोदादी said...

दो वक्त कितने घर में चूल्हे भी नहीं जलते
रोटी में उनको दिखता है राम सबेरा
मै भी ढूँढू उस सबेर को
जहाँ कभी ना हो अँधेरा

अनुपमा पाठक said...

सवेरे की सकल दास्ताँ कह गयी पोस्ट!

प्रवीण पाण्डेय said...

कहाँ शान्ति में खोलते हैं, झन्नाटा दे देता है अखबार।

विभूति" said...

खुबसूरत अभिवयक्ति.....

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