Tuesday, April 29, 2014

हाथ सुमन तू मलता जा

कदम कदम तू चलता जा
बस लोगों को छलता जा

सम्भल, जहाँ अवसर आए तो
रिश्ते छोड़, निकलता जा

सारे सुख हैं भौतिकता में
पा कर उसे मचलता जा

सुख पाने को अपमानों का
निशि दिन जहर निगलता जा

जहाँ जरूरत, गढ़ अपनापन
सख्ती छोड़, पिघलता जा

नीति नियम मूरख बतियाते
दुनिया के संग ढलता जा

और अंत में रहो अकेले 
हाथ सुमन तू मलता जा

5 comments:

कविता रावत said...

और अंत में रहो अकेले
हाथ सुमन तू मलता जा
..बहुत सही... . इतनी सब जोड़ तोड़, खींचा-तानी और अन्त में अकेले साथ कुछ कहाँ कोई ले पाता है। .

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01-05-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
आभार

Shalini kaushik said...

नीति नियम मूरख बतियाते
दुनिया के संग ढलता जा
very right .

prritiy----sneh said...

और अंत में रहो अकेले
हाथ सुमन तू मलता जा

bahut hi satik vyang kiya aajkal ki maansikta par... lekin log is ant ko kahan dekh samjhte hain.

shubhkamnayen

Asha Joglekar said...

और अंत में रहो अकेले
हाथ सुमन तू मलता जा

और रात को बिस्तर चुभे तो
पल पल। करवट बदलता जा

बहुत सुंदर और सच्ची प्रस्तुति।

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