कदम कदम तू चलता जा
बस लोगों को छलता जा
सम्भल, जहाँ अवसर आए तो
रिश्ते छोड़, निकलता जा
सारे सुख हैं भौतिकता में
पा कर उसे मचलता जा
सुख पाने को अपमानों का
निशि दिन जहर निगलता जा
जहाँ जरूरत, गढ़ अपनापन
सख्ती छोड़, पिघलता जा
नीति नियम मूरख बतियाते
दुनिया के संग ढलता जा
और अंत में रहो अकेले
हाथ सुमन तू मलता जा
बस लोगों को छलता जा
सम्भल, जहाँ अवसर आए तो
रिश्ते छोड़, निकलता जा
सारे सुख हैं भौतिकता में
पा कर उसे मचलता जा
सुख पाने को अपमानों का
निशि दिन जहर निगलता जा
जहाँ जरूरत, गढ़ अपनापन
सख्ती छोड़, पिघलता जा
नीति नियम मूरख बतियाते
दुनिया के संग ढलता जा
और अंत में रहो अकेले
हाथ सुमन तू मलता जा
5 comments:
और अंत में रहो अकेले
हाथ सुमन तू मलता जा
..बहुत सही... . इतनी सब जोड़ तोड़, खींचा-तानी और अन्त में अकेले साथ कुछ कहाँ कोई ले पाता है। .
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01-05-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
आभार
नीति नियम मूरख बतियाते
दुनिया के संग ढलता जा
very right .
और अंत में रहो अकेले
हाथ सुमन तू मलता जा
bahut hi satik vyang kiya aajkal ki maansikta par... lekin log is ant ko kahan dekh samjhte hain.
shubhkamnayen
और अंत में रहो अकेले
हाथ सुमन तू मलता जा
और रात को बिस्तर चुभे तो
पल पल। करवट बदलता जा
बहुत सुंदर और सच्ची प्रस्तुति।
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