Wednesday, December 24, 2014

हर पल नया सबेरा हो

तेरा हो या मेरा हो
हृदय प्रेम का डेरा हो

खुद को पात्र बना ले यूँ
जैसे कुशल ठठेरा हो

जीवन में संघर्ष मुदा
अनुशासन का घेरा हो

खुद जीना दीपक जैसे
जाओ जहाँ अंधेरा हो

जीओ खतरे में ऐसे
जैसे चतुर सपेरा हो

वाणी में आकर्षण भी
ऐसा लगे चितेरा हो

सीख सुमन तू यूँ जीना
हर पल नया सबेरा हो 

3 comments:

Rajendra kumar said...

आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (26.12.2014) को "जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि" (चर्चा अंक-1839)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।

Pratibha Verma said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

शारदा अरोरा said...

badhiya likha hai...

हाल की कुछ रचनाओं को नीचे बॉक्स के लिंक को क्लिक कर पढ़ सकते हैं -
विश्व की महान कलाकृतियाँ- पुन: पधारें। नमस्कार!!!