Monday, June 16, 2014

मातु पिता इक वैचारिक छत

जो हालात सामने जब जब खुशी खुशी मंजूर हुए 
वक्त से टकराने की आदत कभी नहीं मजबूर हुए
आँखें नम होतीं हैं अक्सर कोमल क्षण की यादों में
परिचय भी ना सुमन हुआ था मगर पिता से दूर हुए

वे बच्चे बड़भागी होते जिनके सँग में रहते बाप
जीना मरना संतानों हित और बहुत कुछ सहते बाप
अब के जो हालात सामने हैरत में है देख सुमन
प्रायः लोग जरूरत पर क्यूँ गदहे को भी कहते बाप 

मातु पिता इक वैचारिक छत, उसके नीचे खड़ा हुआ हूँ
स्नेह-समर्थन, अनुशासन संग त्याग सीखकर बड़ा हुआ हूँ
सबके सँग जीने मरने की ललक सुमन में है बाकी 
सदा बुराई से लड़ने की अपनी जिद्द पर अड़ा हुआ हूँ

7 comments:

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना बुधवार 18 जून 2014 को लिंक की जाएगी...............
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

रविकर said...

आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीय चर्चा मंच पर ।।

रविकर said...

आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीय चर्चा मंच पर ।।

Pratibha Verma said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

Unknown said...

उत्कृष्ट प्रस्तुति

प्रभात said...

सुन्दर भाव!

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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