सत्ता सबको चाहिए, लगा रहे सब जोर।
जनहित से मतलब नहीं, पर जनहित का शोेर।।
जीत मिलेगी किस तरह, यही चुनावी खेल।
प्रश्न उठाते जो सही, अब जाते हैं जेल।।
तानाशाही बढ़ रही, लोकतंत्र हैरान।
शासक क्या इन्सान को, अब समझे इन्सान??
लोकतंत्र पर हो रहा, रोज गुरिल्ला वार।
बंद करे संसद अभी, अपनी ही सरकार।।
प्रजा, नागरिक भेद को, कब समझोगे मीत?
लोकतंत्र, संसद बचा, अगर देश से प्रीत।।
सदा विपक्षी, मीडिया, हो जनता के साथ।
मगर मीडिया माथ पर, अब सरकारी हाथ।।
वैचारिकता मर रही, सुमन दुखद संयोग।
क्या उपयोगी है कभी, भूखे खातिर योग??
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