Wednesday, April 17, 2024

मर-मर करके जीते हैं

मन-भर  कितने जी  पाते पर, मन भर-भर के जीते हैं 
आपस में  ही सुमन चमन के, लड़-लड़ करके जीते हैं

वर्ग-विभाजन  फूलों में भी, माली जब खुद करता हो 
उपवन  में  कम   गिनती जिसकी, डर-डर के जीते हैं

पौधे  विवश  हुए उपवन के, बिना खाद और पानी के
बारिश,  जाड़ा,  गरमी  में  भी, थर-थर करके जीते हैं

इतना सुन्दर सजा बगीचा, जिस माली की मिहनत से
उनका  दोष  गिने  ये  माली, बड़-बड़  करके  जीते हैं 

जीवन  सबका इस  दुनिया में, मानो सचमुच नेमत है
उजड़  गए हैं  यहाँ चमन कुछ, मर-मर करके जीते हैं

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